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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

बंधे हुए हथियार और आजाद हमलावर

एक दूसरे ग्रह का प्राणी विमान से छिटककर दूर जा गिरा और हमारे यहां बीकानेर में आ फंसा। आधी रात का समय था (अब उड़नतश्‍तरियां तो उसी समय घूमती है ना) एलियन भाई गिरते पड़ते किसी प्रकार दूर धोरे पर पहुंचना चाह रहे थे कि कुत्‍तों की नजर उन पर पड़ गई। एक ने भौंका और बाकियों ने सुर में सुर मिलाकर भौंक का भूकम्‍प ला दिया। कुछ हरावल दस्‍ते के कुत्‍ते को एलियन बाबू पर झपट भी पड़े।

एक बार तो वे कूद फांदकर बच गए। इतने में देखा कि एक आदमी जो दूर से निकल रहा था। (हमारे यहां ऐसे पराई पीड़ा को जानने वालों की भरमार है) उसने एक पत्‍थर उठाया और भद्दी गालियां निकालते हुए कुत्‍तों पर फेंका। कुत्‍ते दूर हट गए। आदम की परछाई हटी नहीं कि कुत्‍ते फिर मैदान में आ डटे। एलियन ने उस आदमी की दोनों गतिविधियों को गौर से देखा। गालियां जो उसने अपने एडवांस ब्रेन में रिकॉर्ड कर ली थी और एक्‍शन हथियार (पत्‍थर) उठाकर मारना। उसने गौर से जमीन की ओर देखा तो उसे बड़ी संख्‍या में हथियार फैले दिखाई दिए। वह बहुत खुश हुआ। 

रिकॉर्ड की हुई आवाज को ज्‍यों का त्‍यों उच्‍चारित करते हुए वह झुका और हथियार को उठाने के लिए जोर लगाया, लेकिन हथियार जमीन में जोर से गड़ा हुआ था। पहले प्रयास में निकला नहीं। उसने और जोर लगाया, लेकिन हथियार निकला नहीं। इस बीच मुंह से ठीक वही आवाज निकालता रहा। कुत्‍ते एक बारगी तो पीछे हट गए, लेकिन जब उन्‍होंने देखा कि इतना अधिक घामड़ आदमी है कि सही पत्‍थर का भी चुनाव नहीं कर पा रहा है और गड़े हुए पत्‍थर पर अपनी अधिक शक्ति जाया कर रहा है तो वे और जोर से भौंकने लगे। काटने वाला कुत्‍ता गश्‍ती पर था नहीं, वरना काट पीट भी शुरू हो सकती थी। 

काफी देर तक कुत्‍तों के भौंकने और एलियन के पत्‍थर निकालने के प्रयास जारी रहे। आखिर एलियन ने आखिरी हथियार अपनाया और छोटी स्टिक निकाली जो झाड़ू में बदल गई। उस पर बैठकर वहां से रवाना हो गया। इस बीच उसने कहा 

"यह ग्रह बहुत खतरनाक है। 
यहां हमलावर आजाद हैं 
और हथियार बांधकर रखे गए हैं।"

कहानी यहां आकर खत्‍म नहीं हो जाती। दरअसल हमारे बाजार की भी कमोबेश यही स्थिति है। मैंने सुना है राज्‍य की अवधारणा कृषि के बाद शुरू हुई। कृषि में इतना उगता था कि खा पी लेने के बाद भी अधिशेष रह जाता था। इस अधिशेष पर कब्‍जे की कोशिश के मद्देनजर ही कुछ लोगों ने सुरक्षा, व्‍यवस्‍था और न्‍याय के लिए राज्‍य का गठन किया गया। अब राज्‍य के मूलभूत कार्यों में यह शामिल है कि राज्‍य का हर व्‍यक्ति इन चीजों के प्रति सहज रहे। आखिर राज्‍य बनाया ही इसीलिए गया कि इन आधारभूत आवश्‍यकताओं की पूर्ति हो जाए, इसके बाद इंसान आगे बढ़ने का प्रयास करे। लेकिन हो इससे उल्‍टा ही रहा है। हर इंसान इन आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए अपना पूरा जीवन व्‍यतीत कर रहा है। 

अब बात करते हैं सट्टे की। सट्टे की मनोवृत्ति को एक सटोरिए ने बहुत शानदार तरीके समझाया। सुपर बाउल खेल में से कुछ जुआरियों को पकड़कर पुलिस ले जा रही थी। कार्रवाई के दौरान ही बारिश शुरू हो गई। इसी बीच कार में बैठे एक जुआरी ने पुलिस वाले से पूछा कि क्‍या तुम बता सकते हो कि कार की दोनों खिड़कियों की सिरे पर जो बूंदें लटक रही हैं, उनमें से कौनसी बूंद पहले नीचे आ गिरेगी। पुलिसवाला सोचने लगा। इतने में जुआरी हंसा, उसने कहा तुम हमें रोक नहीं सकते। हम कभी भी, कहीं भी, कैसे भी सट्टा कर सकते हैं। 

यही सटोरिए एक दिन हमारे मुक्‍त बाजार के हिमायती सिस्‍टम में वहां घुस गए, जहां आम आदमी भी बुरी तरह प्रभावित होता है। अनाज में। देश के 95 प्रतिशत लोग अन्‍न पर निर्भर हैं। कुछ समुद्री किनारों वाले लोग भले ही मांस मच्‍छी नियमित खाने में खाते होंगे, लेकिन शेष लोग गेहूं, बाजरी, चावल, जौ, मक्‍का और दालों पर ही जिंदा हैं। इन लोगों को यह रोजाना न मिले तो व्‍यवस्‍था बिगड़ सकती है, लेकिन वर्ष इक्‍कीसवी सदी के पहले ही दशक में हमारे सामने बड़े सट्टा बाजार आ चुके थे। इन्‍हें नाम दिया गया कमोडिटी एक्‍सचेंज। एक है नेशनल कमोडिटी एस्‍कचेंज और दूसरा है मल्‍टी कमोडिटी एक्‍सचेंज। इनके अलावा भी कई हैं, लेकिन भारत में ये सबसे बड़े हैं। 

अपने शुरूआती दौर में इन एक्‍सचेंज में ग्‍वार और उड़द जैसी वस्‍तुओं पर अधिक सट्टा हो रहा था, लेकिन बाद में हर चीज को शामिल करते गए। आखिर एक दिन यह स्थिति आई कि किसान भले ही पहले की तरह भूखा मर रहा हो, लेकिन हैजर्स (यह कुलीन सटोरिए होते हैं), सटोरिए और जुआरी भावों को तय कर माल लूटने लगे। नतीजा यह हुआ कि आम उपभोक्‍ता तक पहुंच रही वस्‍तुएं इतनी महंगी हुई कि हाहाकर होने लगा। 

जब किसानों ने देखा कि उन्‍हें बीज मिल रहा है दोगुने दाम में और फसल बिक रही है आधे दाम में तो उन्‍होंने बगावत कर दी। बाजार की स्थिति सामने दिख रही थी। सरकार झुक गई। सरकारी नियंत्रण के तहत फसलों का मूल्‍य तय करने के लिए एक आधारभूत राशि तय करने का प्रयास किया जाता है। जिसे सरकार समर्थन मूल्‍य कहती है। यानी किसानों से कहा जाता है आप तो फसल उगाओ, अगर नहीं बिकी तो कम से कम इस कीमत में तो हम ले ही लेंगे। 

नतीजा यह हुआ कि हर साल समर्थन मूल्‍य में बढ़ोतरी होने लगी। इस तेज बढ़ोतरी के बाद हर बार सट्ट बाजार और अधिक सक्रिय होकर फसलों के दाम और बढ़ाने लगा। नतीजा यह हुआ कि अन्‍न और दूसरे खाद्य पदार्थ और महंगे हुए।

मुक्‍त और नियंत्रित बाजार में ऊपर बताई गई कुत्‍ते और पत्‍थर वाली समस्‍या ही है। यहां कुत्‍ते आजाद हैं और पत्‍थर बंधे हुए हैं। सरकारी नियंत्रण समर्थन मूल्‍य को बढ़ाने के इतर और कुछ कर नहीं पाता और बाजार सरकारी नियंत्रण की इस बेबसी का जमकर फायदा उठाता है। 

दूसरे देशों को देखें तो वहां या तो पूर्णतया सरकारी नियंत्रण है या पूर्णतया मुक्‍त बाजार है। भारत में दोनों व्‍यवस्‍थाएं होने से आखिर में केवल ट्रेडर और सटोरिया ही फायदे में नजर आ रहा है। या‍ फिर सरकार पर दबाव बनाकर समर्थन मूल्‍य बढ़वाकर अपना माल बेचने वाले बड़े किसान (जो आमतौर पर रसूखदार लोग होते हैं) ही फायदा उठा रहे हैं। 

अगर सरकार नियंत्रण रखती है तो उसे इस प्रकार का नियंत्रण रखना चाहिए कि किसान की जरूरत के मुताबिक उसे फसल का सही दाम मिल जाए और उपभोक्‍ता पर बिचौलियों की कसरतों का दबाव न आए। ऐसे में सरकारी नियंत्रण को सफल कह सकते हैं। वरना बिचौलिए अपना पेट भरते और बढ़ाते रहेंगे, किसान और उपभोक्‍ता अधिक पिसते और मरते रहेंगे। 

या फिर बाजार को ही मुक्‍त कर दिया जाए। जिसे जिस भाव में जो सामान जहां मिल रहा है, वहीं खरीदे। इस खुले बाजार में जो शेर होगा वही चरेगा, न सरकार की जरूरत न नियंत्रण का दबाव। बाजार खुद ब खुद नियंत्रित हो जाएगा। 

वरना पत्‍थर बंधे रहेंगे और कुत्‍ते भौंकते रहेंगे... 

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

समान्‍तर सत्ताएं...

मुझे लगता है कि देश और काल से परे तीन तरह की सत्ताएं समान्‍तर रूप से सक्रिय हैं। हो सकता है कि मैं समय के फलक पर उड़ती हुई चील नहीं हूं, लेकिन फिर भी निरपेक्ष रहने का प्रयत्‍न करते हुए मुझे लगता है कि धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ताएं साथ साथ चलते हुए एक दूसरे से अलग अपनी पहचान बनाए रखती हैं और एक दूसरे को बुरी तरह प्रभावित करती हैं।

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धार्मिक - यहां धर्म गीता में वर्णित कर्म ही धर्म नहीं बल्कि वर्तमान दौर में अपनी पूर्व स्‍थापित मान्‍यताओं के साथ जड़ हुए संप्रदाय हैं। इसमें हिन्‍दू, मुस्लिम, इसाई सहित सभी संप्रदायों को शामिल किया जा सकता है। इस सत्‍ता से जुड़े लोग अपनी मान्‍यताओं के साथ इतनी शिद्दत से जुड़े हैं कि इन्‍हें हर समस्‍या का समाधान धर्म में ही नजर आता है। इस कोण में न तो अर्थ का कोई महत्‍व है और न ही राजनीति का। यहां आकर आर्थिक और राजनीतिक की रेखाएं धूमिल होने लगती है।

आर्थिक - इसमें पैसे को ही सबकुछ मानने वाले लोग हैं। वे लोग नहीं जो कहते हैं कि अर्थ का अपना महत्‍व है। इसमें वे लोग हैं जो कहते हैं कि पैसे से सबकुछ किया जा सकता है। उनके लिए धन ही धर्म  है और धन से जुड़ी ही की राजनीति करते हैं। धर्म अथवा राजनीति के समीकरण यहां आकर धुंधले हो जाते हैं। अलग अलग क्षेत्रों, समुदायों, धर्म और शक्तियों से आए लोग यहां केवल धन कमाने और उसे बढ़ाने के लिए एक हो जाते हैं, दूसरे कारण उन्‍हें किसी भी सूरत में प्रभावित नहीं कर पाते।

राजनीति - यह जनता के समर्थन का दावा कर, संसाधनों पर काबिज होने, उनके व्‍यवस्थित करने और प्राप्‍त हुए पदों के जरिए राज्‍य को चलाने वाली सत्‍ता है। ये लोग अपनी सत्‍ता को बचाए रखने के लिए धन और धर्म का जमकर उपयोग या दुरुपयोग करते हैं।

(इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो सुविधा को सिद्धांत बनाए हुए हैं। धन के लिए काम करते हैं, लेकिन मौका मिलने पर लाभ भी छोड़ देते हैं, या फिर धार्मिक काम करते हैं, लेकिन पैसे लिए कुछ समय के लिए धर्म (संप्रदाय) के नियम सिद्धांतों को ताक पर रख देते हैं।)

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जब मैं इनमें से किसी एक प्रकार की सत्ता के करीब रह रहे, या उसके बारे में सोच रहे लोगों से मिलता हूं तो उनके सभी तर्क, सभी संभावनाएं और आशंकाएं उसी सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। उन्‍हें दूसरा पक्ष बताने का प्रयास करता हूं तो वे उसे सिरे से खारिज कर देते हैं। उदाहरण के लिए धार्मिक सत्ता से प्रभावित लोगों को उनका धर्मगुरु आदेश देते हैं कि फलां जगह धर्मशाला और कुछ सुविधाएं बना दो। लोग धन अथवा राजनीतिक प्रभाव की परवाह किए बिना अपने गुरु की इच्‍छा को पूरा करते हैं। इसी तरह आर्थिक और राजनीतिक सत्ताएं अपना प्रभाव व्‍यक्‍त करती हैं। हर सत्‍ता के अपने नियम और पद्धतियां हैं। इनका अनुसरण किए बिना क्षेत्र में आपके आगे बढ़ने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं। तीनों ही क्षेत्र अपने नियमों और सिद्धांतों को लेकर इतने कट्टर हैं कि “गलती की सजा मौत” के रूप में सामने आती है। राजनीति में इसे पॉलीटिकल एसेसिन कहते हैं तो धर्म में इसे धर्मच्‍युत कहा जा सकता है, धन के क्षेत्र में दीवालिया या बर्बाद जैसे शब्‍द आम हैं।

दूसरे संसाधन दूसरे दर्ज पर

धर्म, राजनीत और धन की सत्‍ताओं में से किसी एक सत्‍ता का चरम भले ही दूसरे संसाधनों को आसानी से उपलब्‍ध करा देता है, इसके बावजूद इन्‍हें साधने वाले साधक को दूसरे संसाधनों को हमेशा ही दूसरे दर्जे पर रखना पड़ता है। इसका परिणाम यह दिखाई देता है कि धर्म गुरु के पास अकूत संपदा होते हुए भी वह उसका वैसा उपयोग नहीं कर पाता, जैसा कि एक व्‍यवसायी कर सकता है, इसी तरह एक राजनीतिज्ञ को धर्म का ज्ञान और धंधे की समझ होने के बावजूद उसे कम ज्ञानी साधकों के सामने झुकना पड़ता है और लाभ के अवसर जानते हुए भी छोड़ने पड़ते हैं। कुछ लोग अनुमान लगाते हैं कि देश के शंकराचार्यों और अन्‍य धर्मगुरुओं के पास आज की तारीख में लाखों करोड़ रुपए की संपत्तियां और धन है, लेकिन वे इसका कोई उपयोग नहीं करते, इसी तरह कई राजनीतिज्ञों को धर्म के बारे में विशिष्‍ट जानकारियां हैं, लेकिन उनके क्षेत्र में इनका कोई उपयोग नहीं है। किसी व्‍यवसायी या बाजार पर राज कर रहे धन के उपासक को ज्ञान और राजनीति की समझ होने के बावजूद वह अपने क्षेत्र तक सीमित रहता है, ताकि उसका बाजार प्रभावित न हो। इसके बावजूद एक सत्‍ता का दूसरी सत्‍ता का प्रभावित करने का खेल जारी रहता है। न तो राजनीति में ऐसे लोगों की कमी है जो धर्म का ध्‍वज उठाए रखते हैं और न धार्मिक सत्‍ता वोटों को प्रभावित करने से चूकती है। इसी तरह बाजार अपने पक्ष को मजबूत रखने के लिए राजनीतिक पार्टियों और धर्म के ठेकेदारों को अपने प्रभाव में रखने का प्रयास करता है।

सत्‍ताओं के बीच विचरण

एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता की ओर गमन के लिए हमेशा ही प्रयास जारी रहते हैं। कुछ लोग इनमें जबरदस्‍त सफलता अर्जित करते हैं तो कुछ औंधे मुंह गिरते हैं। किसी जमाने में इंग्‍लैण्‍ड के हाउस ऑफ कॉमंस में केवल धनिकों को ही जगह मिल पाती थी, वहीं चीन और रूस में धर्म के प्रभाव को खत्‍म करने के बाद एक नया धर्म पेश किया गया कार्ल मार्क्‍स का, उससे सत्‍ताएं केन्‍द्र में आई। कई देशों में आज भी धर्म की सत्‍ता का प्रभाव राजनीति और धन दोनों को बुरी तरह प्रभावित रखता है। भारत के इतिहास में भी ऐसे प्रकरण देखने को मिलते हैं। हालांकि तीनों को अलग अलग रखने के लिए स्‍पष्‍ट नीतियां और सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं, लेकिन समय बदलने के साथ ही इन सिद्धांतों का अतिक्रमण होता है और सत्‍ताएं एक-दूसरे का अतिक्रमण कर जाती हैं। आजादी के बाद पहली पॉलीटिकल पार्टी कांग्रेस ने धर्म को राजनीति से दूर रखा और देश के विकास के लिए धन को शरण दी। लाइसेंस राज स्‍थापित किए गए और कुछ विशिष्‍ट लोगों को अधिकांश सुविधाएं मिली। बाद में जब भाजपा ने धर्म का ध्‍वज बुलंद किया तो देश की जनता ने उन्‍हें भी केन्‍द्र में ला बैठाया। फिर उदारणीकरण के बाद बाजार हावी हुआ तो धर्म की उपादेयता कम नजर आने लगी। ऐसे में भाजपा सत्‍ता से बाहर हो गई और पिछले नौ साल से कांग्रेस फिर केन्‍द्र में है। भले ही आम जनता कांग्रेस की नीतियों से सहमत न हो, लेकिन भाजपा भी विकल्‍प के रूप से अब तक खुद को स्‍थापित नहीं कर पा रही है। प्रचलित धर्मों और धन की सत्‍ता का नैसर्गिक विरोध करने वाले कॉमरेड भी लगभग हाशिए तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में धन के साथ चल रहे धर्म और राजनीति को आज हर कहीं प्रश्रय मिल रहा है।

विचरण का श्रेष्‍ठ उदाहरण

लेख के आखिर में बाबा रामदेव का नाम लेने से कहीं ऐसा न माना जाए कि यह पूरी पोस्‍ट बाबा रामदेव को केन्द्रित करके लिखी गई है। इसके बावजूद एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता में संचरण का कोई श्रेष्‍ठ उदाहरण है तो आज के दौर में बाबा रामदेव है। बाबा रामदेव ने धर्म के जरिए धन के क्षेत्र में प्रवेश किया। आम जनता को धर्म की बातें बताई, योग कराया, स्‍वस्‍थ रहने की अपील की और भगवा धारण किए रखा। उनकी दवा कंपनियां और एफएमसीजी प्रॉडक्‍ट आज दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्‍ता उत्‍पाद बनाने वाली कंपनी हिंदुस्‍तान लीवर लिमिटेड तक को धक्‍का पहुंचा रहे हैं। हजारों करोड़ का साम्राज्‍य खड़ा करने के बाद अब रामदेव दूसरा अतिक्रमण राजनीति में करने का प्रयास कर रहे हैं। दीगर बात यह है कि धर्म और धन को साधने के बाद राजनीति को साधने के लिए उन्‍होंने लगभग सभी प्रचलित मान्‍यताओं को ताक पर रख दिया है। भले ही वे राजनीति में पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं, लेकिन केवल धर्म का झंडा या धन की ताकत हाथ में रखकर दूर से प्रभावित करने के बजाय उन्‍होंने सीधे राजनीति क्षेत्र में उतरकर सिद्ध कर दिया है कि विचरण संभव है।

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ऐसे में दूसरे लोगों के लिए भी संभावनाओं के द्वार खुलने लगे हैं कि किसी एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता में संचरण किया जा सकता है। आज भले ही यह इतना आसान न लगे, लेकिन आने वाले दिनों में हमारे देश में इन सत्‍ताओं के बीच की रेखाएं और अधिक धूमिल होने की संभावनाएं बन रही हैं।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

वाल मार्ट को आने दो

ऐसा नहीं है कि मैं रिटेल दुकानदारों के विरोध में हुं या बड़ी कं‍पनियां मुझे उनका समर्थन करने के लिए पैसा दे रही हैं। ना ही मैं केन्‍द्र सरकार का मुलाजिम हूं। इस सबके बावजूद मैं चाहता हूं कि विदेशी कंपनियां देश में सीधा निवेश करें और यहां के लोगों को वह सब चीजें उपलब्‍ध कराएं जिसके वे हकदार हैं। यकीन जानिए कि वे कंपनियां यहां व्‍यापार कर यहां से बहुत कुछ नहीं ले जा पाएंगी। कुछ लोग इस प्रकिया को इस्‍ट इंडिया कंपनी का लौटना तो कुछ स्‍थानीय बाजार से टूटने से जोड़ रहे हैं, लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग है। हो सकता है वाल मार्ट आठ या दस साल में यहां फेल होकर लौट जाएं। कैसे ?

ऐसा नहीं है कि अमरीका का यह मल्‍टीस्‍टोर हमेशा सफल ही रहा है। खुद को आर्य बताने वाले जर्मनों और एशिया की खुद के दम पर खड़ा होने की कोशिश कर रही एक शक्ति दक्षिण कोरिया ने वाल मार्ट को फेल कर दिया। अब यही स्थिति वाल मार्ट की भारत में भी हो सकती है, लेकिन इससे पहले वाल मार्ट हमें वो दे जाएगा जिसे देने में बड़े दुकानदार हमेशा हिचकिचाते रहे हैं।

पहले इस स्‍टोर की खासियत

यह स्‍टोर धनिया से लेकर टाइटन घड़ी तक और बादाम से लेकर महंगे परिधानों तक हर चीज बेच लेता है, जो आपके दैनिक जीवन का जरूरी हिस्‍सा है। इसके स्‍टोर कई बार किलोमीटर में फैले होते हैं। आपको अपनी पसंद की हर चीज का चुनाव करने की आजादी मिलती है। डिस्‍काउंट मिलते हैं। ग्राहक यहां देवता है और दुकानदार उसका पुजारी। किसी भी उपभोक्‍तावादी व्‍यवस्‍था की यह चरम अवस्‍था कही जा सकती है। नए उत्‍पाद, नई जानकारियां और कीमतों में कटौती की जिम्‍मेदारी कंपनी की होती है और आम आदमी के पास विकल्‍पों का ढेर होता है। आज बाजार उपभोक्‍ता को अपने घटिया उत्‍पाद से रिझाता है और बेहतर माल 'कुछ लोगों' तक सीमित कर दिया गया है, वहीं यह स्‍टोर एक तरह का लोकतंत्र बनाता है जो यह कहता है कि जो पैसा देगा वो माल ले जाएगा।

जर्मनी में फेल होने के प्रमुख कारण

आपको जानकार सुखद आश्‍चर्य होगा कि हजारों करोड़ रुपए कमाने वाले मार्ट जर्मनी में गए तो वहां बहुत कुछ खोकर वापस बाहर आ गए। उन्‍हें वहां विफलता का कडुवा स्‍वाद मिला। कैसे मिला, Andreas Knorr and Andreas Arndt के एक लेख में इसे स्‍पष्‍ट किया गया है। उन्‍होंने लिखा कि

Clearly dominating the US retail market, Wal-Mart expanded into Germany (and Europe) in late 1997. Wal-Mart’s attempt to apply the company’s proven US success formula in an unmodified manner to the German market, however, turned out to be nothing short of a fiasco. Upon closer inspection, the circumstances of the company’s failure to establish itself in Germany give reason to believe that it pursued a fundamentally flawed internationalization strategy due to an incredible degree of ignorance of the specific features of the extremely competitive German retail market. Moreover, instead of attracting consumers with an innovative approach to retailing, as it has done in the USA, in Germany the company does not seem to be able to offer customers any compelling value proposition in comparison with its local competitors. Wal-Mart Germany’s future looks bleak indeed.

ऐसे में भारत की आबोहवा को समझना मैं समझता हूं कि वाल मार्ट के लिए जर्मनी से अधिक कठिन होगा। यहां गंदगी के बीच पसरी हुई सब्जियों में से लाल सुर्ख टमाटर को कच्‍ची भिंडियां तलाश लेने वाले भा‍रतियों को सजे संवरे स्‍टोरों तक खींचना टेढ़ा काम होगा। और मोल भाव के बिना कोई चीज ले लेना, इसे तो असंभव ही जानिए। इसके चलते वाल मार्ट कंज्‍यूमर सेटिस्‍फेक्‍शन इंडेक्‍स में सबसे नीचे आएगा। वह कहता है माल पड़ा है, लेना है तो लो वरना चलते बनो। हम यह कभी बर्दाश्‍त नहीं कर सकते।

कोरिया में फेल होने के कारण

कोरिया के लोगों की खासियत जानें तो पता चलेगा कि वहां के लोग वालमार्ट के प्रति कैसे प्रतिक्रिया कर सकते हैं- एक बानगी-

Korea : The men are proud, masculine, patriot, somewhat militant, but in a good way. There’s a mix of strong, expansive, traditional values, along with a large minority undercurrent of modernity. It’s really good – it’s the best of all possible worlds. There’s problems – the blatant racism and xenophobia kind of sucks, but I don’t mind it so much. Nowhere’s perfect.

वहीं वाल मार्ट के रैवेये के बारे में आप समझ सकते हैं कि कैसा रहा होगा। एक  लेखक Sebastian जैसा बताते हैं-

Walmart has really, really low prices. There’s a few reasons for this – the company is one of the best in the world at logistics, so they manage to have fast turnover of inventory without keeping too much onhand at any given store. I’d love to see how their logistics division runs sometime – I remember reading that they’ve got some of the most sophistication about predicting and automatically changing stock at stores based on factors like the weather changing that are hard to pin down.

ऐसे में भारतीय बाजार की विशिष्‍टता ही इसका सुरक्षा कवच है। हमें कदापि चिंतित नहीं होना चाहिए कि एक बाहरी दैत्‍य हमारे बाजार में प्रवेश कर रहा है।

हमें क्‍या फायदा है

तो सवाल पैदा होता है कि हमें क्‍यों विरोध नहीं करना चाहिए हमें क्‍या फायदा है- इसका स्‍पष्‍ट कारण है कि स्‍थानीय बाजार के बड़े खिलाडि़यों और स्‍थानीय खिलाडि़यों के साथ काम कर रहे बाहरी खिलाड़ी भी अब तक हमें उन सभी उत्‍पादों से महरूम रखे हुए हैं जो कंपनी की तुलना में उपभोक्‍ताओं के लिए फायदे का सौदा है। सो, वाल मार्ट से सबसे बड़ा नुकसान उन धन्‍ना सेठों को होगा, जो अधिक फायदे वाले सौदों में निवेश कर उपभोक्‍ताओं को उनकी जरूरतों से महरूम रख रहे हैं। गलाकाट प्रतिस्‍पर्द्धा सेठों का मुनाफा कम करेगी, न कि रिटेलरों को फायदा। गली गली घूमकर फेरियां लगा रहे दुकानदारों को नुकसान कम और फायदा अधिक होगा, क्‍योंकि बड़े स्‍टोर सेल में जो सामान निकालेंगे वे सामान बाद में ठेलों पर आएंगे और रिसाइक्लिंग में मास्‍टर भारतीय उपभोक्‍ता ठेले वालों का बेसब्री से इंतजार करेंगे। हो सकता है ली की जींस या एचटीसी का फोन भी हमें ठेले पर खरीदने को मिल जाए Smile 

 

स्‍वागत वाल मार्ट...