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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

समान्‍तर सत्ताएं...

मुझे लगता है कि देश और काल से परे तीन तरह की सत्ताएं समान्‍तर रूप से सक्रिय हैं। हो सकता है कि मैं समय के फलक पर उड़ती हुई चील नहीं हूं, लेकिन फिर भी निरपेक्ष रहने का प्रयत्‍न करते हुए मुझे लगता है कि धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ताएं साथ साथ चलते हुए एक दूसरे से अलग अपनी पहचान बनाए रखती हैं और एक दूसरे को बुरी तरह प्रभावित करती हैं।

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धार्मिक - यहां धर्म गीता में वर्णित कर्म ही धर्म नहीं बल्कि वर्तमान दौर में अपनी पूर्व स्‍थापित मान्‍यताओं के साथ जड़ हुए संप्रदाय हैं। इसमें हिन्‍दू, मुस्लिम, इसाई सहित सभी संप्रदायों को शामिल किया जा सकता है। इस सत्‍ता से जुड़े लोग अपनी मान्‍यताओं के साथ इतनी शिद्दत से जुड़े हैं कि इन्‍हें हर समस्‍या का समाधान धर्म में ही नजर आता है। इस कोण में न तो अर्थ का कोई महत्‍व है और न ही राजनीति का। यहां आकर आर्थिक और राजनीतिक की रेखाएं धूमिल होने लगती है।

आर्थिक - इसमें पैसे को ही सबकुछ मानने वाले लोग हैं। वे लोग नहीं जो कहते हैं कि अर्थ का अपना महत्‍व है। इसमें वे लोग हैं जो कहते हैं कि पैसे से सबकुछ किया जा सकता है। उनके लिए धन ही धर्म  है और धन से जुड़ी ही की राजनीति करते हैं। धर्म अथवा राजनीति के समीकरण यहां आकर धुंधले हो जाते हैं। अलग अलग क्षेत्रों, समुदायों, धर्म और शक्तियों से आए लोग यहां केवल धन कमाने और उसे बढ़ाने के लिए एक हो जाते हैं, दूसरे कारण उन्‍हें किसी भी सूरत में प्रभावित नहीं कर पाते।

राजनीति - यह जनता के समर्थन का दावा कर, संसाधनों पर काबिज होने, उनके व्‍यवस्थित करने और प्राप्‍त हुए पदों के जरिए राज्‍य को चलाने वाली सत्‍ता है। ये लोग अपनी सत्‍ता को बचाए रखने के लिए धन और धर्म का जमकर उपयोग या दुरुपयोग करते हैं।

(इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो सुविधा को सिद्धांत बनाए हुए हैं। धन के लिए काम करते हैं, लेकिन मौका मिलने पर लाभ भी छोड़ देते हैं, या फिर धार्मिक काम करते हैं, लेकिन पैसे लिए कुछ समय के लिए धर्म (संप्रदाय) के नियम सिद्धांतों को ताक पर रख देते हैं।)

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जब मैं इनमें से किसी एक प्रकार की सत्ता के करीब रह रहे, या उसके बारे में सोच रहे लोगों से मिलता हूं तो उनके सभी तर्क, सभी संभावनाएं और आशंकाएं उसी सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। उन्‍हें दूसरा पक्ष बताने का प्रयास करता हूं तो वे उसे सिरे से खारिज कर देते हैं। उदाहरण के लिए धार्मिक सत्ता से प्रभावित लोगों को उनका धर्मगुरु आदेश देते हैं कि फलां जगह धर्मशाला और कुछ सुविधाएं बना दो। लोग धन अथवा राजनीतिक प्रभाव की परवाह किए बिना अपने गुरु की इच्‍छा को पूरा करते हैं। इसी तरह आर्थिक और राजनीतिक सत्ताएं अपना प्रभाव व्‍यक्‍त करती हैं। हर सत्‍ता के अपने नियम और पद्धतियां हैं। इनका अनुसरण किए बिना क्षेत्र में आपके आगे बढ़ने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं। तीनों ही क्षेत्र अपने नियमों और सिद्धांतों को लेकर इतने कट्टर हैं कि “गलती की सजा मौत” के रूप में सामने आती है। राजनीति में इसे पॉलीटिकल एसेसिन कहते हैं तो धर्म में इसे धर्मच्‍युत कहा जा सकता है, धन के क्षेत्र में दीवालिया या बर्बाद जैसे शब्‍द आम हैं।

दूसरे संसाधन दूसरे दर्ज पर

धर्म, राजनीत और धन की सत्‍ताओं में से किसी एक सत्‍ता का चरम भले ही दूसरे संसाधनों को आसानी से उपलब्‍ध करा देता है, इसके बावजूद इन्‍हें साधने वाले साधक को दूसरे संसाधनों को हमेशा ही दूसरे दर्जे पर रखना पड़ता है। इसका परिणाम यह दिखाई देता है कि धर्म गुरु के पास अकूत संपदा होते हुए भी वह उसका वैसा उपयोग नहीं कर पाता, जैसा कि एक व्‍यवसायी कर सकता है, इसी तरह एक राजनीतिज्ञ को धर्म का ज्ञान और धंधे की समझ होने के बावजूद उसे कम ज्ञानी साधकों के सामने झुकना पड़ता है और लाभ के अवसर जानते हुए भी छोड़ने पड़ते हैं। कुछ लोग अनुमान लगाते हैं कि देश के शंकराचार्यों और अन्‍य धर्मगुरुओं के पास आज की तारीख में लाखों करोड़ रुपए की संपत्तियां और धन है, लेकिन वे इसका कोई उपयोग नहीं करते, इसी तरह कई राजनीतिज्ञों को धर्म के बारे में विशिष्‍ट जानकारियां हैं, लेकिन उनके क्षेत्र में इनका कोई उपयोग नहीं है। किसी व्‍यवसायी या बाजार पर राज कर रहे धन के उपासक को ज्ञान और राजनीति की समझ होने के बावजूद वह अपने क्षेत्र तक सीमित रहता है, ताकि उसका बाजार प्रभावित न हो। इसके बावजूद एक सत्‍ता का दूसरी सत्‍ता का प्रभावित करने का खेल जारी रहता है। न तो राजनीति में ऐसे लोगों की कमी है जो धर्म का ध्‍वज उठाए रखते हैं और न धार्मिक सत्‍ता वोटों को प्रभावित करने से चूकती है। इसी तरह बाजार अपने पक्ष को मजबूत रखने के लिए राजनीतिक पार्टियों और धर्म के ठेकेदारों को अपने प्रभाव में रखने का प्रयास करता है।

सत्‍ताओं के बीच विचरण

एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता की ओर गमन के लिए हमेशा ही प्रयास जारी रहते हैं। कुछ लोग इनमें जबरदस्‍त सफलता अर्जित करते हैं तो कुछ औंधे मुंह गिरते हैं। किसी जमाने में इंग्‍लैण्‍ड के हाउस ऑफ कॉमंस में केवल धनिकों को ही जगह मिल पाती थी, वहीं चीन और रूस में धर्म के प्रभाव को खत्‍म करने के बाद एक नया धर्म पेश किया गया कार्ल मार्क्‍स का, उससे सत्‍ताएं केन्‍द्र में आई। कई देशों में आज भी धर्म की सत्‍ता का प्रभाव राजनीति और धन दोनों को बुरी तरह प्रभावित रखता है। भारत के इतिहास में भी ऐसे प्रकरण देखने को मिलते हैं। हालांकि तीनों को अलग अलग रखने के लिए स्‍पष्‍ट नीतियां और सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं, लेकिन समय बदलने के साथ ही इन सिद्धांतों का अतिक्रमण होता है और सत्‍ताएं एक-दूसरे का अतिक्रमण कर जाती हैं। आजादी के बाद पहली पॉलीटिकल पार्टी कांग्रेस ने धर्म को राजनीति से दूर रखा और देश के विकास के लिए धन को शरण दी। लाइसेंस राज स्‍थापित किए गए और कुछ विशिष्‍ट लोगों को अधिकांश सुविधाएं मिली। बाद में जब भाजपा ने धर्म का ध्‍वज बुलंद किया तो देश की जनता ने उन्‍हें भी केन्‍द्र में ला बैठाया। फिर उदारणीकरण के बाद बाजार हावी हुआ तो धर्म की उपादेयता कम नजर आने लगी। ऐसे में भाजपा सत्‍ता से बाहर हो गई और पिछले नौ साल से कांग्रेस फिर केन्‍द्र में है। भले ही आम जनता कांग्रेस की नीतियों से सहमत न हो, लेकिन भाजपा भी विकल्‍प के रूप से अब तक खुद को स्‍थापित नहीं कर पा रही है। प्रचलित धर्मों और धन की सत्‍ता का नैसर्गिक विरोध करने वाले कॉमरेड भी लगभग हाशिए तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में धन के साथ चल रहे धर्म और राजनीति को आज हर कहीं प्रश्रय मिल रहा है।

विचरण का श्रेष्‍ठ उदाहरण

लेख के आखिर में बाबा रामदेव का नाम लेने से कहीं ऐसा न माना जाए कि यह पूरी पोस्‍ट बाबा रामदेव को केन्द्रित करके लिखी गई है। इसके बावजूद एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता में संचरण का कोई श्रेष्‍ठ उदाहरण है तो आज के दौर में बाबा रामदेव है। बाबा रामदेव ने धर्म के जरिए धन के क्षेत्र में प्रवेश किया। आम जनता को धर्म की बातें बताई, योग कराया, स्‍वस्‍थ रहने की अपील की और भगवा धारण किए रखा। उनकी दवा कंपनियां और एफएमसीजी प्रॉडक्‍ट आज दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्‍ता उत्‍पाद बनाने वाली कंपनी हिंदुस्‍तान लीवर लिमिटेड तक को धक्‍का पहुंचा रहे हैं। हजारों करोड़ का साम्राज्‍य खड़ा करने के बाद अब रामदेव दूसरा अतिक्रमण राजनीति में करने का प्रयास कर रहे हैं। दीगर बात यह है कि धर्म और धन को साधने के बाद राजनीति को साधने के लिए उन्‍होंने लगभग सभी प्रचलित मान्‍यताओं को ताक पर रख दिया है। भले ही वे राजनीति में पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं, लेकिन केवल धर्म का झंडा या धन की ताकत हाथ में रखकर दूर से प्रभावित करने के बजाय उन्‍होंने सीधे राजनीति क्षेत्र में उतरकर सिद्ध कर दिया है कि विचरण संभव है।

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ऐसे में दूसरे लोगों के लिए भी संभावनाओं के द्वार खुलने लगे हैं कि किसी एक सत्‍ता से दूसरी सत्‍ता में संचरण किया जा सकता है। आज भले ही यह इतना आसान न लगे, लेकिन आने वाले दिनों में हमारे देश में इन सत्‍ताओं के बीच की रेखाएं और अधिक धूमिल होने की संभावनाएं बन रही हैं।

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

मेरा आदर किया तो... झापड़ दूंगा!!

अरे नहीं यह मैं नहीं कह रहा, पूजारी महाराज ने कहा। और इतना स्‍पष्‍ट कहा कि मैं दंग रह गया। पिछले कुछ समय से इन पुजारीजी के पास जा रहा हूं। पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन बहुत ज्ञानी हैं। उनके पास कई तरह के लोग आते हैं। कुछ लोगों में एक-दो दिन बात करने के बाद उनके प्रति श्रद्धा पैदा होने लगती है। फिर किसी को कोई समस्‍या होती है तो वह पुजारीजी से आकर बात करता है, पुजारी जी अपनी तरंग में कुछ बोल देते हैं और सुनने वाले को अपनी समस्‍या का समाधान नजर आने लगता है।

यहां तक सब ठीक है, लेकिन कुछ दिन बाद श्रद्धालु जैसे ही पुजारीजी से कहता है कि उसकी पुजारीजी के प्रति अगाध श्रद्धा है, पुजारीजी चिढ़ जाते हैं। बोलते हैं मेरा आदर सम्‍मान करने की कोई जरूरत नहीं है, ना ही मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह रखो।

मैंने एक को डांट पड़ते देखा। बाद में जब अकेले बैठे थे, तो पास जाकर बातचीत करने लगा, उसी दौरान पूछा कि आप आदर-सम्‍मान करने वालों से इतना चिढ़ते क्‍यों हैं। तो बोले आज तुम श्रद्धा का पात्र बना रहे हो, कल मुझे किसी डांस क्‍लब में खड़ा देखोगे तो चिल्‍लाओगे कि इतने बड़े पुजारीजी हैं, मैं इनकी इज्‍जत करता हूं और ये डांस क्‍लब में खड़े शराब पी रहे हैं। पहले काम होता है तो मेरे पास आते हैं, बाद में अपनी गरज से मेरे प्रति श्रद्धा पैदा करते हैं। इसमें मेरा कहीं दोष नहीं है। इसके बावजूद उनकी गरज और उनके स्‍वार्थ की श्रद्धा के प्रति मुझे जिम्‍मेदार बने रहना पड़े यह मुझे बर्दाश्‍त नहीं है। इसी कारण मैं किसी की श्रद्धा का पात्र बनने से कतराता हूं।

2002110300030401इन दिनों किरण बेदी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। पहले से स्‍थापित सिस्‍टम के साथ लड़ते हुए इसमें सुधार की कोशिश कर रही देश की श्रेष्‍ठ महिला को आज कुत्सित राजनीति की भेंट चढ़ाया जा रहा है। जब उन्‍होंने नौकरी में रहते हुए पहली बार सिस्‍टम के खिलाफ काम करने की कोशिश की होगी, तब किसी ने भी उनके भीतर कोई छद्म चेहरा नहीं देखा होगा। समय के साथ इस आईपीएस ऑफिसर ने सिस्‍टम बदलने तक इसकी कमियों का ही फायदा उठाकर बेहतर काम करने के प्रयास किए होंगे। ऐसे में कई चीजों को गलत भी ठहराया जा सकता है। लेकिन कुछ सवाल बाकी रह जाते हैं..

- जब किरण बेदी सिस्‍टम के भीतर रहकर उससे लड़ रही थी तब,  आज आरोप लगा रहे कितने लोग उनके साथ थे ?

- जब किरण बेदी ने सिस्‍टम की कमियों का फायदा उठाना शुरू किया तब किन लोगों ने उसकी तरफ अंगुली उठाई, अगर नहीं उठाई को आज इसकी क्‍या जरूरत आन पड़ी ?

- आज वे किस फायदे के लिए यह सबकुछ कर रही हैं ?

- क्‍या बेदी ने किसी एक भी व्‍यक्ति को अपने प्रति श्रद्धावनत होने के लिए दबाव बनाया?

- किरण बेदी इकोनॉमी क्‍लास में सफर करती हैं और बिजनेस क्‍लास का पैसा लेती हैं, तो क्‍या जरूरत है उन्‍हें बुलाने की। अगर जरूरत है तो उनकी शर्तों पर ही उन्‍हें बुलाना होगा।

- राजनीतिज्ञों के खिलाफ बोलने पर हमेशा से ही उन पर हमले होते रहे हैं, यह उनकी नीयति लगती है, लेकिन क्‍या इससे उनकी नीयत पर शक किया जा सकता है।

 

राजनीति गंदी होती है। हमारे यहां भी अपवाद नहीं है। यह गंदी थी, गंदी है और भविष्‍य में भी गंदी ही रहेगी। इस सिस्‍टम को साफ करने वाले लोगों को अपने हाथ गंदे करके ही इसे साफ करना होगा। मैं किरण बेदी की इज्‍जत करता हूं, लेकिन उनके प्रति श्रद्धा नहीं रखता, केवल इसलिए ताकि उन पर सौ प्रतिशत सही बने रहने का दबाव न बनें और वे सफाई के इस काम में सतत प्रयास जारी रखें...

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

तुम मेरी पीठ खुजाओ मैं तुम्‍हारी पीठ खुजाता हूं

पहला सवाल तो यह कि ब्‍लॉगिंग के बाड़े में कमेंट का सांड पहले पहल छोड़ा किसने। ठीक है छोड़ भी दिया तो बाकी के लोगों को कमेंट करके यह कहने की क्‍या जरूरत है कि कमेंट करो। मैं हिन्‍दी भाषी हूं, पढ़ता हूं, लिखता हूं, बोलता हूं, सोचता हूं। कुल मिलाकर मेरे सभी काम हिन्‍दी में ही होते हैं लेकिन कभी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मुझे किसी को प्रेरित करने के लिए हिन्‍दी के ब्‍लॉग पर कमेंट लिखने के लिए कहना चाहिए। अब अगला सवाल कि जब सब लोग लिख चुके हैं कुछ पक्ष में तो कुछ विरोध में तो मैं अब क्‍यों जुगाली कर रहा हूं। मेरे पास इसका भी कारण है। हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के शुरूआती वीरों ने नए लोगों को प्रोत्‍साहित करने के लिए इसकी शुरूआत की होगी। अपने लिखे पर संदेश पढ़ते ही मुझे भी बड़ा आनन्‍द आता है लेकिन एनानिमस जैसे अलगाव वादियों और क्षुद्र मानसिकता वाले लोगों के कारण कई बार अच्‍छा खासा लिखने वाला व्‍यक्ति हतोत्‍साहित भी हो सकता है। व्‍यक्ति दो चीजों के लिए जिन्‍दा रहता है। महत्‍व और स्‍पर्श। ब्‍लॉग पर मिली टिप्‍पणी दोनों का अहसास देती है। लेकिन क्‍या आपने कभी सोचा है कि इसका दूसरा पक्ष नुकसान का भी है। कितने लोगों ने आहत होकर अपनी लाइन और लैंथ बिगाड ली है। कितने लोग हैं जो केवल टिप्‍पणी पाने के लिए लिख रहे हैं और पहले कभी शुद्ध विचार लिखने वाले लोग थे। फिर भी एक बात है एक लेखक को हमेशा यह चिंता होती है कि जो कुछ मैं सृजन कर रहा हूं वह लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। कसम से जब से मुझे गूगल एनालिटिक मिला तब से आज तक मैंने किसी की टिप्‍पणी का इंतजार नहीं किया। मेरे ज्‍योतिष दर्शन ब्‍लॉग पर स्‍त्री की सुंदरता विषय पर मैंने बिल्‍कुल परमहंस वाले भाव से लिखा और कुछ महिलाओं ने इसे गलत समझा और मुझे ऐसी टिपिया झाड़ पिलाई कि मेरी‍ घि‍ग्‍घी बंध गई। वो दिन आज का दिन स्‍त्री लिखने से पहले चार बार सोचता हूं। पहले पता होता तो वह पोस्‍ट ही नहीं लिखता। मेरे कहने का अर्थ यही है कि टिप्‍पणी लाइन और लैंथ को बिगाड़ भी सकती है।
इसका एक पहलू राजनीति भी है। अब टिप्‍पणी से ब्‍लॉग का स्‍टेटस आंका जाने लगा तो टिप्‍पणी लेने के लिए भी जुगत होने लगी और आज टिप्‍पणी की हैसियत वोट जैसी हो गई है। हर ब्‍लॉगर और ईमेल धारक की विशिष्‍ट पहचान है। अपनी टिप्‍पणी किसी दूसरे के यहां करके उसे यह आग्रह भी कर दिया जाता है कि भईया मेरे ब्‍लॉग पर भी आईयो।
कुल मिलाकर तूं मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाता हूं...

जय हो
टिपिया देवी की जय
ब्‍लॉगर महाराज की जय
प्‍यारे समीर और शास्‍त्री जी की जय,
ब्‍लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत की जय
पूरे हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की जय