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शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

All we need is feudal system

हमें सामंती या कहें राजशाही तंत्र की ही जरूरत है

कहने को हम 15 अगस्‍त 1947 को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हो गए, और आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक भाग हैं, लेकिन हकीकत में देखा जाए तो अभी लोकतंत्र आया ही नहीं है। लोकतंत्र के आने में अभी कुछ दशक और लग जाएंगे। तब तक हमें सामंतशाही की जरूरत है। यह बुरा लग सकता है कि आजादी का गला घोंटकर मैं राजशाही का पक्ष ले रहा हूं, लेकिन गौर कीजिए क्‍या हम छद्म सामंतवाद की छाया में नहीं खड़े हैं। राजशाही (feudalism) में जहां कम से कम एक राजा या सामंत होता है जिसे जिम्‍मेदार बनाया या बताया जा सकता और व्‍यवस्‍था के प्रति भी वही जवाबदेह होता है। वर्तमान भारत में सामंतवादी हरकतें अपने चरम पर हैं, लेकिन कोई राजा या सामंत जिम्‍मेदारी लेने के लिए नहीं है। किसी की कोई जिम्‍मेदारी नहीं और सत्‍ता पर काबिज कुछ लोग, कुछ घराने, धन और ताकत का राज।

क्‍या वास्‍तव में हम खुद को धोखे में नहीं रखे हुए हैं। एक नेताजी होते हैं, और उनके पीछे चेलों चपाटों की पूरी फौज। जो उनकी हां में हां मिला रही है। उन नेताजी को कोई बुरा कहने वाला नहीं। अगर कह भी दिया तो नेताजी की मोटी खाल पर कोई असर नहीं। पॉलिटिकल इम्‍युनिटी (Political immunity) लिए नेता, रावण की तरह हंसते हुए लूटते हैं। यह व्‍यवस्‍था कोई बाहर से नहीं आई है। 

संसाधन सीमित हैं 
उन्‍हें बढ़ाने का भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ। 
आजादी (Freedom) के साठ साल बाद शिक्षा का अधिकार दिया गया
स्‍वास्‍थ्‍य और सुरक्षा का अधिकार तो अब भी कोई जमीनी हकीकत नहीं रखते। 
पुलिस हमारी सेवा के लिए नहीं बल्कि हमें डंडा दिखाने और भय पैदा करने के लिए है। 
न्‍यायालय के बारे में मान लिया गया है कि न्‍याय में देरी होगी 
भले ही यह कहा जाए कि जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड

राजनीतिक पार्टियां (political parties) बाहरी ताकतों नहीं लादी हैं। इसी व्‍यवस्‍था में शिक्षा और संसाधनों से वंचित लोगों ने अपने अपने क्षेत्रों में उन लोगों का चुनाव किया जो उन क्षेत्रों के लोगों के "काम" आ सके। नतीजा यह हुआ कि काम आने वाला बंदा काम करके ऐसी हैसियत में पहुंच गया कि अपने क्षेत्र में वह शेर है और दूसरी गली में पहुंचते ही दुम दबाए कुत्‍ता। ऐसे में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कोई एक जन नेता तैयार होने की कोई सूरत बाकी नहीं रही। 

अब यही क्षेत्रीय लोग मिलकर एक ऐसे नेता का चुनाव करते हैं जो उनके निजी या उनके क्षेत्र के हित साध सके। क्षेत्रीय नेताओं के पास दोहरी चुनौतियां हैं। पहली कि अपने क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए रखा जाए, तो दूसरी ओर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर अपना प्रभाव अधिक से अधिक बढ़ाए। नेता बदल गया तो क्षेत्र का प्रतिनिधित्‍व भी खत्‍म हो जाता है। ऐसे में क्षेत्र विशेष की जनता की मजबूरी बन जाती है कि अपने हित साधने के लिए भ्रष्‍टाचार में डूब चुकने के बाद भी उसी नेता का चुनाव कराए जो पहले से राष्‍ट्रीय या राज्‍य स्‍तर पर कुछ रसूख रखता हो। 

इन घटनाओं के साथ राष्‍ट्रीय स्‍तर पर शुरू में एक पार्टी रहती है तो बाद में दूसरी पार्टी लहर के साथ आती है। चूंकि एक पार्टी स्‍वतंत्रता दिलाने के खम भरते हुए पहले से सत्‍ता में है सो उसका विघटन भी धीरे धीरे होता है, जैसे जैसे देश के लोग आजादी की डायलेमा से बाहर निकलते हैं, वैसे वैसे दूसरी पार्टी को बल मिलता है। आखिर एक लहर आती है और वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है। 

वही क्षेत्रीय लोग और उसी राज्‍य और राष्‍ट्र स्‍तरीय कमशकश से सामना होता है और दोनों पार्टियों में एक जैसे लोग नजर आने लगते हैं। चूंकि चुनाव खर्चीला है और क्षेत्रीय दबदबा जरूरी चीज है। ऐसे में हर स्‍तर पर भ्रष्‍ट लोगों और भ्रष्‍टाचार का सहारा लिया जाता है। आखिर में दोनों पार्टियां जॉर्ज ओरवेल के सुअरों जैसी दिखाई देने लगती है।

फिलहाल देश की राष्‍ट्रीय राजनीति में ऐसे दो लोग दिखाई दे रहे हैं जो अपने दम पर सत्‍ता और व्‍यवस्‍था में परिवर्तन का दावा करते हैं। एक हैं गुजरात के मुख्‍यमंत्री भाजपा के नरेन्‍द्र मोदी (Narendra modi) तो दूसरे हैं दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री आप के अरविन्‍द केजरीवाल (Arvind kejriwal)। दोनों ने अपने अपने तरीके से भारत की जनता में यह छवि बनाने का प्रयास किया है कि चाहे सिस्‍टम जैसा भी हो, वे अपने दम पर व्‍यवस्‍था में आमूलचूल परिवर्तन ला सकते हैं। 

न तो गुजरात भ्रष्‍टाचार से अछूता रहा है न दिल्‍ली का मुख्‍यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल इसे मुक्‍त करा पाए हैं। बस दोनों के पास छवि ही है। इस छवि में ऐसी क्‍या खास बात है। देखते हैं। 

दोनों अपने दम पर व्‍यवस्‍था परिवर्तन का दावा करते हैं 
दोनों खुद को दबंग साबित करते हैं 
दोनों अपने पार्टी पर अपने तरीके की पकड़ रखते हैं 
दोनों के पास सोशल मीडिया और मेन स्‍ट्रीम मीडिया पर प्रभाव डालने की शक्ति है
दोनों सत्‍ता पर काबिज पार्टी को हड़काते हैं 
दोनों के पास पर्याप्‍त धनबल दिखाई देता है 
दोनों के पास जनबल दिखाई देता है 
दोनों के पास अंध भक्‍तों की लंबी कतार है 

एक प्रकार से दोनों जनता की किसी आवाज के बजाय अपनी आवाज अधिक ताकत के साथ जनता तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। क्‍या एक सामंत यही काम नहीं करता। अगर कोई यह समझने की भूल करे कि वामपंथ में सामंतवाद से लड़ने की शक्ति है तो उन्‍हें पहले बने यूएसएसआर को देखना चाहिए, जहां हमेशा यह शिकायत रही कि सभी संसाधनों को मास्‍को में सीमित कर दिया गया है। दूसरी ओर सामंतवाद का सबसे शक्तिशाली उदाहरण खुद चीन है। अगर वहां लोकतंत्र हो तो राजशाही अंदाज में पोलित ब्‍यूरो की बैठक नहीं होती। हां, कुछ मामलों में यह राजतंत्र से अलग है, लेकिन अंतत: सत्‍ता और शक्ति को केन्द्रित करने का ही काम करती है। चाहे वह कुछ लोगों के पास हो, एक समूह विशेष के पास हो या एक पूरी संस्‍था के पास हो। 

भारत (India) में ऐसा पोलित ब्‍यूरो से चलने वाला देश बनाया जाना संभव नहीं है, क्‍योंकि इसके लिए संप्रदायों को दांव पर लगाना पड़ेगा। जो व्‍यवहारिक रूप से संभव नहीं है। ऐसे में वामपंथी सामंतवाद को अभी छोड़ दें। 

दूसरी ओर लोकतांत्रिक (democracy) सामंतवाद का नतीजा हम 65 सालों से भुगत ही रहे हैं। ऐसे में इस छद्म सामंतवाद को भी विदा करने का वक्‍त आ गया दिखाई देता है। 

तीसरे मिलट्री के हाथ में सत्‍ता देने का औचित्‍य दिखाई नहीं देता है। क्‍योंकि देश का भूभाग इतना विस्‍तृत और बेढ़ब है कि मिलट्री द्वारा इसे शासित किया जाना व्‍यवहारिक रूप से संभव नहीं है। वरना अब तक मिलट्री शासन भी आ सकता था, जैसा पाकिस्‍तान में आता रहा है। 

चौथा सिस्‍टम वही है असली सामंतवाद। कहने, सुनने और पढ़ने में भले ही बुरा लगे, लेकिन नए जमाने के इस दो राजाओं की टक्‍कर और उसके बाद के हालात देखने का अलग की कौतुहल होगा। दोनों में से कोई भी आए, अगर ये लोग अपने इस सामंतवादी चोले को छोड़ दें तो अलग बात है, वरना देश में बड़े परिवर्तनों की बयार शुरू हो सकती है। पिछले दस साल से देश ऐसे लुंज पुंज माहौल में आगे बढ़ रहा है, कि विश्‍व में आई मंदी के दौरान अपनी बचत के जोर से अपने पैरों पर खड़ा देश भी उसका लाभ नहीं उठाया पाया। हमारे लोगों को दुनिया के हर कोने में धमकाया, हड़काया और दबाया जा रहा है। 

नए नेतृत्‍व के बाद कम से कम यह सुकून रहेगा कि पीछे एक बड़ी ताकत खड़ी है जो किसी भी देश और ताकत को धमकाकर हमें उचित सम्‍मान दिला सकती है। 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

Hindi Translation of - Is Kejariwal an American agent?

फोर्ड फाउंडेशन, हिवोस, पेनोस और डच दूतावास - 

क्‍या अरविन्‍द केजरीवाल अमरीकी एजेंट है?

यह मूल लेख  Ford Foundation, Hivos, Panos and Dutch Embassy-  Is Kejariwal an American agent? का हिन्‍दी अनुवाद है। Updated as on 26th November 2013

आप पार्टी की पहली वर्षगांठ पर केजरीवाल से 13 सवाल

1. सम्‍पूर्ण परिवर्तन (NGO) कब पंजीकृत हुआ और इस गैर सरकारी संगठन के रजिस्‍ट्रेशन नम्‍बर और अन्‍य जानकारियां मुहैया कराएं?

2. आपका एनजीओ परिवर्तन से यह सम्‍पूर्ण परिवर्तन कब बना?

3. आप लगातार परिर्तन के लिए यह कहते रहे हैं कि परिवर्तन किसी सोसायटी एक्‍ट अथवा ट्रस्‍ट अथवा कंपनी से संबंधित नहीं है। यह आमजन का आंदोलन है। आयकर विभाग के दृष्‍ि टकोण से यह महज एक आम लोगों का संगठन है। क्‍या यह सच है ? 

4. जून 2002 में आपने विभिन्‍न संचार माध्‍यमों के जरिए यह प्रचार किया था कि परिर्तन को दिए जाने वाले सभी प्रकार को दान धारा 80 के तहत करमुक्‍त हैं, और परिवर्तन इनकम टैक्‍स कानून की धारा 12 ए के तहत पंजीकृत है। क्‍या यह भोले भाले लोगों को गुमराह करने वाली बात नहीं है ? 

5. क्‍या आपने दिल्‍ली में परिवर्तन के तहत हुई जनसुनवाई के लिए विश्‍व बैंक से फंड हासिल किया था? अगर हां तो यह फंड किस प्रकार आप तक पहुंचा, जबकि आपका संगठन कहीं पंजीकृत ही नहीं है। 

6. आपके परिवर्तन के कार्य पर टिप्‍पणी करते हुए विश्‍व बैंक ने एक विशेष रिपोर्ट जारी की थी? क्‍या यह सच है। पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें  

7. क्‍या यह सच है कि विश्‍व बैंक की रिपोर्ट के ठीक बाद ही आपका चयन मैग्‍सेसे पुरस्‍कार के लिए किया गया? 

8. क्‍या यह सच है कि रोमन मैग्‍सेसे फाउंडेशन की ओर से तैयार की गई आपकी जीवनी में प्रथम संदर्भ में आपको सीआईए (सेंट्रल इंटेलीजेंस ऑ‍फ अमरीका) से संबंधित बताया गया था? क्‍या यह महज संयोग था या गलती से संगठन के मुंह से निकला हुआ सत्‍य, जो आपका असली चेहरा दिखाता है? 

9. क्‍या यह सच है कि न्‍यूयार्क विश्‍वविद्यालय की छात्रा शीम्रित ली तुम्‍हारे संगठन कबीर के साथ वर्ष 2009-10 में काम करती थी और उसने तुम्‍हें भारत में रंगभेद आंदोलन जैसा आंदोलन खड़ा करने की सलाह दी थी, जो राजनीतिक बदलाव लेकर आए। क्‍या यह सच है कि वह बाद में मिश्र गई और वहां तहरीर चौक में हुए आंदोलन की साक्षी रही। 

10. क्‍या यह सच है कि तुम सम्‍पूर्ण परिवर्तन एनजीओ के सचिव की हैसियत से दिल्‍ली विद्युत नियामक कमीशन की सलाहकार संस्‍था के सदस्‍य रहे हो। यह कमीशन NOTIFICATION No. F.1(135)/DERC/2000-01/5092 Delhi, the 27th March, 2003 को बनाया गया। इसी आधार पर तो तुम्‍हें दिल्‍ली में विद्युत दरों के गलत तरीके से बढ़ने और गलत मीटर लगाए जाने के लिए दोषी क्‍यों न माना जाए? 

11. क्‍या यह सच है - तुम पारदर्शिता की वकालत करते हो और इसके बावजूद तुमने कबीर और परिवर्तन की वेबसाइट्स बंद कर दी। वह भी तब जब जनता वर्ष 2012 में तुम्‍हें जानने का प्रयास कर रही थी!!

12. क्‍या यह सच है -  अक्‍टूबर 2012 में जब तुम्‍हारे विदेशी संपर्कों यथा फोर्ड फाउंडेशन से संबंधों के बारे में लोगों ने पड़ताल करनी शुरू की तो फोर्ड फाउंडेशन ने भी कबीर और परिवर्तन एजीओ को दिए गए फंड के बारे में पूरी जानकारी हटा ली। ताकि लोगों को पता न चल सके कि तुम्‍हें धन कहां से और कितना मिल रहा है?

13. क्‍या यह सच है कि तुमने विदेशियों से भी धन की मांग की ? डच दूतावास से भी, जबकि भारतीय एनजीओ डच दूतावास से फंड लेना वर्ष 2002 में ही बंद कर चुके हैं, क्‍यों‍कि उस धन को भारत विरोधी गतिविधियों में इस्‍तेमाल किया जाता रहा है। 


मूल ब्‍लॉग लेखक की टिप्‍पणी (Original Piece That appeared on 21st October,2012 raising serious question about Kabir and Kejariwal. Immediately after the blog post was being tweeted, Mr. Transparency Chameleon Kejariwal's site of Kabir was off and all details from Ford Foundation website about Kabir has been hidden , exposing the complicity of Kejariwal and Ford and by extension Kejariwal and the US game-makers.) 

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

Kejriwal phenomenon @ a betel shop

पान की दुकान पर केजरीवाल का असर

बुद्धिजीवियों की एक जमात का मानना है कि केजरीवाल का उदय एक प्रकार का प्रतिक्रियावाद या अराजकतावाद है। मौजूद व्‍यवस्‍था से आहत लोग इस व्‍यवस्‍था को चुनौती देने वालों के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। लेकिन जमीन देखने के लिए हमारे बीकानेर में पान की दुकान से बेहतर स्‍थान और कोई हो नहीं सकता। सभी बौद्धिक, परा बौद्धिक, अधि भौतिक और अबौद्धिक तक की चर्चाएं इन्‍हीं पान (betel) की दुकानों पर होती हैं। 

इन्‍हीं पान की दुकानों में से एक पर बीती शाम मैं भी उलझ गया। मैं खुद को बद्धि जीवी मानकर वहां उतरा था, लेकिन चर्चा के अंत में लोगों ने स्‍पष्‍ट कर दिया कि न तो मेरे अंदर इतनी बुद्धि है कि केजरीवाल को समझ सकूं न इतना सामर्थ्‍य। मेरे अपने तर्क थे और उन लोगों के अपने। चर्चा कुछ इस प्रकार हुई। 

मैंने कहा - केजरीवाल आम आदमी (Aam Aadmi) का स्‍वांग भरकर मीडिया के जरिए लोगों के सेंटिमेंट भुनाने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए मैंने उदाहरण दिया कि इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में गैले गूंगे चैनल को भी प्रति एक सैकण्‍ड का पांच से दस हजार रुपए वसूलना होता है। ऐसे में पूरे पूरे दिन केजरीवाल के गीत गाने वाले न्‍यूज चैनल्‍स का खर्चा का मुफ्त में चलता होगा। या कोई दैवीय सहायता प्राप्‍त होती है। 

जवाब मिला : मीडिया को भी टीआरपी (TRP) चाहिए। आज हर कोई केजरीवाल को देखना चाहता है। ऐसे में मीडिया की मजबूरी है कि वह केजरीवाल और उसके आंदोलन को दिखाए। अगर चैनलों को खुद को दिखाना है तो केजरीवाल को दिखाना ही पड़ेगा। वरना उस चैनल की टीआरपी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी। 

मैंने कहा : केजरीवाल ने आम आदमी के नाम पर जितने आंदोलन किए हैं सभी विफल रहे हैं। केवल जबानी लप्‍पा लप्‍पी (verbal jiggaling) की मुद्रा ही रही है। 

जवाब मिला: अब तक किसने आम आदमी की आवाज उठाई है। भाजपा (BJP) और कांग्रेस (CONGRESS) तो एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। बाकी दल भी अपनी ही रोटियां सेंकने का काम कर रहे हैं। पहली बार कोई आदमी ऐसा आया है, जिसने आम आदमी की बात की है और उसकी ओर से लड़ाई लड़ी है। उसके प्रयास ही काफी हैं। सफलता और विफलता तो ऊपर वाले की देन है। 

मैंने कहा : केजरीवाल कांग्रेस से मिला हुआ है। यह उनकी बी टीम (B Team) है। 

जवाब मिला : कांग्रेस और बीजेपी वाले अपनी रांडी रोणा करते रहेंगे। एक कहेगा दूसरे की बी टीम है और दूसरा कहेगा पहले की बी टीम है। आज केजरीवाल दोनों के भूस भर रहा है। जनता इन भ्रष्‍ट (Currupt) नेताओं की ऐसी तैसी कर देगा। 

मैंने कहा : एक साल पहले आए इस नए नेता के पास न तो देश के लिए वीजन (Vision) है न ही इसका कोई पॉलिटिकल बैकग्राउंड (Political background) है। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि यह आम आदमी को राहत दिलाने का काम करेगा। 

जवाब मिला: जो पहले से अनुभवी लोग हैं उन्‍होंने कौनसे काम करवा दिए। सब अपना घर भरने में लगे हैं। यह बदलाव की बयार लेकर आया है तो जरूर काम करेगा। कम से कम एक नए आदमी को मौका तो दे रहे हैं। 

मैंने कहा : केजरीवाल बहुत अधिक अकल लगाकर काम कर रहा है। केवल दिल्‍ली (Delhi) में आंदोलन करता है और पूरे देश पर छा जाता है। केवल मैट्रो सिटी (Metro city) के लोगों की भावनाएं ही भुना रहा है। देश के अन्‍य हिस्‍सों में इसका कोई खास असर नहीं है। 

अब लोग तैश में आ गए, बोले: भो##** के गांव गांव तक जाकर केजरीवाल का नाम सुन ले। (एक ने खाजूवाला जो कि सीमा से सटा हुआ कस्‍बा है, दूसरे ने श्रीकोलायत, तीसरे ने लूणकरनसर में चल रही हवा के बारे में जानकारी दी।)

जब मेरे तर्क और क्षमता जवाब दे गए तो पान की दुकान पर मेरी जमकर मलामत की गई। मुझे नेताओं का पिठ्ठू करार दिया गया और बताया गया कि मैं जमीनी हकीकत (Ground realities) से कोसों दूर हूं। अब देश में तेजी से बदलाव आ रहा है और इस बदलाव के रथ को केजरीवाल चला रहा है। जल्‍द ही लोकसभा और ग्राम सरपंच तक के चुनावों में आम आदमी पार्टी ही राज करेगी। हर घर में आज टीवी चैनल है और सब देख रहे हैं कि देश में क्‍या हो रहा है।

मैंने रूंआसा होकर पूछा मोदी (Modi) ? 

जवाब आया: मोदी ने किया होगा गुजरात में काम, लेकिन आज देश को अगर जरूरत है तो केजरीवाल की है। वही देश की लय को सुधार सकता है। वही है आने वाले जमाने की ताजी बयार। वहीं से परिवर्तन की शुरूआत होगी। भाजपा और कांग्रेस तो एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। 

अब मैं सोच रहा हूं कि अगर पान की दुकान से लेकर गांवों (Gaanv) तक अगर केजरीवाल फैल चुका है तो क्‍या मोदी केवल अपनी सोशल मीडिया फौज पर ही राज कर रहा है। सोशल मीडिया पर भी देख रहा हूं कि बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका केजरीवाल को हृदय से स्‍वीकार कर चुका है और जिस प्रकार अमिताभ बच्‍चन की छोटी मोटी भूलों को भी पर्दे पर उनकी स्‍टाइल में शामिल कर देखा जाता रहा है, उसी प्रकार केजरीवाल के प्रयासों में रही कमियों को इसी प्रकार नजरअंदाज करने का दौर चल रहा है। 

आपको क्‍या लगता है ? 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

Kejriwal's angle : Paradigm shift or hidden agenda "2014"

मुझे पहला आश्‍चर्य तब हुआ तब राजीव शुक्‍ला (Rajiv Shukla) का चैनल पूरे दिन राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के एक भाषण में रही कमी को लेकर उसकी पूंछ फाड़ने का प्रयास करता रहा। यह अजीब मसला था। अब तक जो संस्‍थान जिन लोगों के भरोसे या सही शब्‍द कहें कि कृपा से जी रहा था, वह अचानक हिंदी का पैरोकार बनकर सीधे राहुल गांधी पर ही आक्रमण कर रहा था। 

                उत्‍तर प्रदेश चुनाव में राहुल गांधी के बाद प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka gandhi wadra) और उनके बच्‍चे भी जब सहानुभूति की लहर पैदा करने में विफल रहे तो कांग्रेस को सत्‍ता विरोधी लहर को दबाने का यही एक तरीका समझ में आया कि इस आग की झुलस को विपरीत दिशा की आग से ही काबू में किया जाए।


आग से आग बुझाने की पद्धतियों में से एक फायर ब्रेक (Fire Break) है। यह दो तरह से काम करती है। पहला तो यह कि जंगल या घास के मैदान की आग के बीच अंतराल पैदा किया जाए ताकि ईंधन की आपूर्ति बाधित हो और साथ ही आग जिस दिशा में बढ़ रही हो, उसी दिशा में आगे जाकर फायर लाइन (Fire line) बना दी जाए। यह फायर लाइन रास्‍ते की ऑक्‍सीजन (Oxygen) को खत्‍म कर देती है और पीछे से आ रही आग बीच का गैप होने और ऑक्‍सीजन की कमी के चलते दम तोड़ देती है। इससे बीहड़ या घास का मैदान बचा रह जाता है। राजनीति के इस बीहड़ को बचाने के‍ लिए केजरीवाल फायर ब्रेकर सिद्ध हो सकते हैं। 


मुझे केजरीवाल शुरू से ही फायर ब्रेकर ही दिखाई दिए।  पहली तो उनकी एंट्री ही रजनीकांत (Rajnikant) वाले अंदाज में होती है। अब चूंकि वे सितारा हैसियत के थे नहीं, तो इसके लिए भारत के दक्षिणी पश्चिमी कोने में अपना काम कर रहे अन्‍ना हजारे (Anna hazare) को उठया गया। आम आदमी (Aam Admi) के नाम पर आंदोलन किया गया। एक के बाद दूसरी हस्तियां कतार में आती गई और उनका दोहन कर केजवरीवाल आगे आते रहे। मैं यह नहीं मानता कि शुरू से ही अरविन्‍द केजरीवाल को ही इस काम के लिए नियुक्‍त किया गया होगा, लेकिन प्रमुख लोगों में एक शामिल रहे होंगे। 

                आगे के सूत्रों को खुला छोड़े रखे जाने के लिए जरूरी है कि एक से अधिक विकल्‍प साथ लेकर ही चला जाए। मैं देखता हूं कि केजरीवाल दूसरों को पछाड़ आगे निकलते गए। लोकपाल (Lokpal) के लिए संघर्ष हुआ। इसके बाद अन्‍ना हजारे का कद घटाने वाला गुजरात का चुनाव हुआ। अन्‍ना का कद घटाने वाला इसलिए क्‍योंकि अन्‍ना को लाया ही इसलिए गया था कि भ्रष्‍टाचार या अन्‍य मुद्दों की बात कर वे जनता में अपनी तगड़ी छवि बनाए जो वास्‍तव में सरकार के विरुद्ध दिखाई दे। इसके बाद गुजरात (Gujrat) चुनाव के समय अन्‍ना का परीक्षण किया गया। जिसमें वे बुरी तरह फेल साबित हुए। 

                यही से अरविन्‍द केजरीवाल घटना का उदय शुरू हो गया था। अब पांच राज्‍यों के चुनाव तक यह फायर लाइन अधिक काम नहीं कर पाई। क्‍योंकि मोदी ने भी गुजरात को छोड़कर कहीं और कुछ भी नहीं किया था। हद तो यह है कि उत्‍तर भारत के अधिकांश राज्‍यों में मोदी के आदमी अभी केवल जमीन तैयार करने का काम कर रहे हैं। जैसे उत्‍तरप्रदेश और बिहार में अमित शाह। ऐसे में सीधा मोदी पर हमला बोले जाने की संभावनाएं क्षीण हो गई। 

                अब पांच राज्‍यों के विधानसभा चुनाव आते हैं तो अपना आकार बढ़ाने में नाकामयाब रही इस फायरलाइन के पास दिल्‍ली (Delhi) का ही विकल्‍प शेष रहता है। क्‍यों‍कि ये फायर फाइटर देख चुके थे कि दिल्‍ली से बाहर महाराष्‍ट्र (Maharashtra) में इसी प्रकार का प्रयास बुरी तरफ फ्लॉप सिद्ध हो चुका था। अन्‍य राज्‍यों में भी धरना प्रदर्शन किए गए, लेकिन कहीं से प्रभावी फीडबैक नहीं मिला। 

(राज्‍यों के छोटे छोटे जिलों में से अधिकांश में सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता केजरीवाल एण्‍ड कंपनी के साथ दिखाई दे रहे हैं, क्‍यों? पता नहीं।)

ऐसे में मेन स्‍ट्रीम मीडिया के साथ भावुक होने वाली मैट्रो दिल्‍ली ही सबसे मुफीद जगह हो सकती थी। केजरीवाल ने यही काम किया। दिल्‍ली में पूरी ताकत झोंक दी गई। पूरी ताकत झोंक दी गई, किसकी ? 

                स्‍पष्‍ट तौर पर न भी कहा जाए तो केवल इस तथ्‍य को समझा जा सकता है कि दिल्‍ली में जितने कुल वोट पड़े उसमें करीब सत्रह प्रतिशत वोट तो केवल आखिरी आधे घंटे में पड़े। अब आम आदमी पार्टी को मिले मतों को देखा जाए तो लगता है कि उन सत्रह प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस को तो वोट नहीं ही दिया होगा। अगर भाजपा को ही वोट देना होता तो शाम साढ़े चार बजे तक किसका इंतजार करते। खैर, आम आदमी पार्टी के नौ कैंडिडेट करीब एक हजार वोटों के अंतर से जीत गए। 

                अगर केजरीवाल एण्‍ड पार्टी को अब भी फायर ब्रेकर ही समझा जाए तो आम आदमी पार्टी की यह जीत उनके खुद के रास्‍ते में एक बड़ी बाधा बनकर उभर आई है। सत्‍ता का मद खुद केजरीवाल पर भारी पड़ रहा है। क्‍योंकि यह फायर लाइन तो बनाई गई है वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए, लेकिन इसका बड़ा भाग यहीं दिल्‍ली में टूट और बिखर रहा है। ऐसे में अगर हवा विपरीत हो जाती है तो यह फायर लाइन की आग ही फायर फाइटर्स को लील लेगी। 

अब मुझे तीन स्थितियां समझ में आ रही है 

                - वर्ष 2014 के चुनाव के लिए सक्रिय बने रहना है और देशभर में आम आदमी पार्टी की जड़ें फैलानी है तो केजरीवाल को दिल्‍ली की गद्दी छोड़नी पड़ेगी। लेकिन यहां एक समस्‍या यह हो गई है कि सभी प्रमुख लोगों को लोकसभा चुनाव के लिए रोका गया था, अब अधिकांश चुनकर आए लोग ऐसे हैं कि दिल्‍ली की गद्दी उन्‍हें सौप दी जाए तो आम आदमी पार्टी की पहली मुख्‍यमंत्री की कुर्सी ही रजिया गुंडों में वाली हालत में पहुंच जाएगी। ऐसे में खुद केजरीवाल को ही यह भार झेलना पड़ेगा। 

                - दिल्‍ली की मुख्‍यमंत्री की कुर्सी को बचाने में कामयाब होते हैं। ऐसे में 7 मार्च के बाद भी राज्‍य सरकार बनी रहती है और कांग्रेस का समर्थन जारी रहता है तो भाजपा के नए नेतृत्‍व और शक्तिशाली विपक्ष को भी झेलना केजरीवाल की मजबूरी होगी। ऐसे में लोकसभा में मोदी से लड़ने का सपना यहीं कुचलकर खत्‍म हो जाएगा। ऐसे में लोकसभा की बागडोर किसी अन्‍य के हाथ में दी जा सकती है। 

छीन झपट कर और पाले पोसे गए इस सपने को केजरीवाल भी किसी और को नहीं देना चाहेंगे। तब वे सरकार गिराकर और कांग्रेस को गालियां निकालते हुए जनता की सहानुभूति के रथ पर सवार हो सकते हैं।  

                - अगर केजरीवाल दिल्‍ली का मोह छोड़कर सीधे लोकसभा की तैयारी करते हैं और पीछे से दिल्‍ली में कुछ ऐसा वैसा हो जाता है तो उनकी हालत हिलते मंच पर खड़े होकर भाषण दे रहे नेताजी जैसी हो जाएगी। नीचे टांगे धूज रही होगी और ऊपर मुंह से बांग निकल रही होगी। 

दिल्‍ली की कुर्सी हाथ में आने के साथ ही केजरीवाल के मुंह में नेवला आ गया है। केजरीवाल ने इससे बचने की बहुत कोशिश की, लेकिन डॉ. हर्षवर्द्धन पहले ही दिन यह तय कर चुके थे कि चूंकि जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया है, सो भाजपा सरकार नहीं बनाएगी। भापजा सरकार बनाती तो केजरीवाल को दोहरी सहायता मिलती। दिखाने के लिए 28 एमएलए होते और बोलने और दोषारोपण के लिए एक और जगह खुल जाती। लेकिन अब जिम्‍मेदारी ही सिर पर आ गिरी है। 

यहीं पर आकर फायर ब्रेकर खुद ब्रेक हो रहा है। 

अब इसे मोदी की किस्‍मत कहें या केजरीवाल की बदकिस्‍मती कि प्रधानमंत्री का सपना देख रहे आम आदमी को दिल्‍ली का ऐसा तख्‍त मिला है जिसके नीचे की सारी चूलें हिली हुई है। अब तक जितना बोला है, उतना कर दिखाना तो शक्तिमान के बस में भी नहीं दिखाई दे रहा। कम से कम लोकसभा चुनाव 2014 तक तो कतई नहीं।

मोदी या कहें भाजपा के लिए जरूरी है कि अब केजरीवाल किसी सूरत में दिल्‍ली की राज्‍य सरकार के ही लिपटे रहें। अगर इस काम में भाजपा विफल रहती है तो आम आदमी पार्टी को पूरे देश में फैलने से कोई रोक नहीं पाएगा। 

मोदी आंधी नहीं सत्‍ता के विरोध का दावानल है 
और एक दावानल केजरीवाल को खड़ा किया जा रहा है। 
जिस बिंदू पर दोनों आमने सामने भिडेंगे वहीं दोनों खत्‍म होंगे।