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बुधवार, 25 जुलाई 2012

गुटखा : एक स्‍वीकारोक्ति, एक गुजारिश

अपनी हर एक समस्‍या के लिए समाज और व्‍यवस्‍था को दोष देने की परम्‍परा का निर्वहन करते हुए मैं एक बार फिर राज्‍य सरकार को गुटखे पर पाबंदी लगाने के लिए बधाई देने के साथ ही गुजारिश करूंगा कि गुटखे पर पूरी तरह प्रतिबंध क्‍यों न लगा दिया जाए। इससे घटिया कैमिकल, सुपारी और नष्‍ट कर दिए जाने योग्‍य जर्दे का इस्‍तेमाल कर बनाए गए कैंसर के टूल को समाप्‍त करने में मदद मिलेगी।

राज्‍य सरकार ने राजस्‍थान में गुटखे पर प्रतिबंध कर दिया है, लेकिन एक सुराख (बहुत बड़ा सुराख) खुला छोड़ दिया है। इसके अनुसार राजस्‍थान में केवल उस गुटखे को प्रतिबंधित किया गया है जिसमें पान मसाला और तम्‍बाकू पहले से मिला हुआ हो। दुकानदार पान मसाला और तम्‍बाकू अलग अलग बेच सकते हैं। ऐसे में गुटखे पर प्रतिबंध केवल सांकेतिक बनकर रह जाएगा। राज्‍य सरकार को लगा कि गुटखा खाने वाले लोगों में कैंसर की समस्‍या अधिक है। हो सकता है इसके लिए राज्‍य सरकार ने किसी मेडिकल रिपोर्ट का सहारा लिया हो। तो क्‍या यह मेडिकल रिपोर्ट यह कह सकती है कि

पान मसाला और गुटखा अलग अलग खरीदने और बाद में उन्‍हें मिलाकर खाने से कैंसर नहीं होगा?

गुटखे पर प्रतिबंध से पहले भी मैं रजनीगंधा पान मसाला और तुलसी 00 मिलाकर खाता था। आज भी खा रहा हूं। उसकी सप्‍लाई पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगी है। हां, जिन गुटखों की सप्‍लाई पर रोक लगी है, वे इतने महंगे हो गए हैं कि गुटखा प्रेमी आज की तारीख में रोटी से अधिक गुटखे पर खर्च कर रहे हैं। भले ही रजनीगंधा तुलसी पर रोक नहीं लगी है, लेकिन दूसरे गुटखों पर रोक का असर रजनीगंधा पर हुआ है और दस रुपए एमआरपी का यह सैट (सात रुपए का पान मसाला और तीन रुपए का जर्दा) आज पंद्रह से बीस रुपए में मिल रहा है। मुझे पैसा अधिक देने में कोई दिक्‍कत नहीं है, मजे की बात तो यह है कि पंडितजी को खिलाने वाले भी एक ढूंढो दस मिलते हैं, लेकिन मुझे पीड़ा है, कालाबाजारी से।

गुटखे की कीमतें बढ़ने का यह दूसरा प्रकरण है। इससे पहले राज्‍य में पॉलीथिन पर रोक लगाने के साथ ही गुटखे के पाउच पर भी रोक लगा दी गई थी। इसके चलते बाजार में पड़ा गुटखा महंगा बिकने लगा था। दस रुपए का रजनीगंधा उन दिनों बीस रुपए के भाव देख आया था, फिर बारह या तेरह रुपए से नीचा को कभी बिका भी नहीं। मैंने अपने समाचार पत्र के जरिए स्‍थानीय डीलर और कंपनी के प्रतिनिधि को लाइन में लिया था। कंपनी प्रतिनिधि ने तो दीपावली के बाद कह दिया कि होली से पहले इसके भाव कम करवा देंगे (आप देखिए पान मसाला बनाने वाली कंपनी का प्रतिनिधि यह बात कह रहा है) और स्‍थानीय वितरक ने कहा कि मांग अधिक है और उसके पास सामान देने के लिए पर्याप्‍त आदमी नहीं है। आपको यह लॉजिक समझ में नहीं आया होगा। मामला यह है कि रजनीगंधा का स्‍थानीय वितरक बहुत अधिक “ईमानदार” आदमी है। इसलिए वह अधिक कीमत पर माल नहीं बेचता। बस उसके पास माल होता ही नहीं है। इसका तो अब क्‍या ईलाज है। ऐसे में रिटेल दुकानदारों को एमआरपी से भी ऊंची कीमत देकर अंडरकटिंग कर रहे लोगों से माल खरीदना पड़ता है।

सरकार और गुटखे के खिलाडि़यों की मिलिभगत से आम जनता का साथ दिखाई दे रहा है। सरकार ने बैन लगा दिया और कंपनियों ने गुटखा बेचना बंद कर दिया। बस अलग अलग ही तो बेचते हैं...

gutkha

रविवार, 24 जून 2012

क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसमें बहुत गरल हो...

जोशीजी, ध्‍यान रखना
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसमें बहुत गरल हो, उसका क्‍या, जो दंतहीन, विषहीन विनीत सरल हो...
एक साथी स्‍वतंत्र पत्रकार ने मुझे उस समय यह बात कही जब मुझे अपने संस्‍थान में डेस्‍क से उठाकर पूरी तरह रिपोर्टर बना दिया गया था और कुछ बड़े विभाग मुझे रिपोर्टिंग के लिए सौंपे गए थे। इनमें राजस्‍थान का शिक्षा मुख्‍यालय यानी शिक्षा निदेशालय भी शामिल था। मुझे इस तथ्‍य को समझने में अधिक वक्‍त भी नहीं लगा। मेरे जिस साथी का बाहर तबादला हुआ था, वे शिक्षा विभाग की सालों तक रिपोर्टिंग करते रहे थे, शायद दस साल से वे इस विभाग से जुड़े थे। ऐसे में निदेशालय ने नए रिपोर्टर को एक जल्‍दी से स्‍वीकार नहीं किया। मेरा संस्‍थान बड़ा था और रसूखदार भी, लेकिन न मैं उस समय इतना प्रभाव रखता था, न मेरा भय। कई दिन तक निदेशालय में एक अनुभाग से दूसरे अनुभाग तक चक्‍कर लगाता रहा। मंत्रालयिक कर्मचारियों के नेता हो या शिक्षक नेता, मुझसे मीठी मीठी बातें तो करते, लेकिन खबर नहीं देते। मैं परेशान, पूरा दिन निदेशालय के चक्‍कर काटकर शाम को प्रेस लौटता को संपादक की झिड़कियां सुनने को और मिलती। फिर मुझे मिले एक प्रशासनिक अधिकारी, मुझे परेशान देखकर ही उन्‍होंने माजरा समझ लिया। पूछा कितनी खबरें निकाली है अब तक, मैं खिसियाया, बोला अब तक तो प्रतिस्‍पर्द्धी से पिट ही रहा हूं। उन्‍होंने कुछ ऐसी ही बात दोहराई कि पीटोगे नहीं तो पिटोगे। मैंने कहा अपने ही लोग हैं, अच्‍छे लोग हैं पीटने से क्‍या होगा, खबर है ही नहीं उनके पास। तो अधिकारी महोदय ने कहा कि दूसरा अखबार यहां आकर खबर पैदा थोड़े ही करता है।
यह बात मुझे भी जंच गई। मैंने अधिकारी महोदय से ही पूछा कि कैसे पीटें। तो एक अभिभावक की तरह उन्‍होंने समझाया। जो बात बताई वह समझ में भी आ गई। दो दिन बाद मैंने एक खबर लगाई।
“यही लगे यहीं से रिटायर होंगे”
शिक्षा निदेशालय की स्थिति के बारे में यहीं के एक कर्मचारी ने कभी कहा कि ये तो करणी माता के काबा हैं। देशनोक की करणी माता के बारे में प्रसिद्ध है कि चारण जाति के लोग मानव देह त्‍यागकर करणी माता के काबे (चूहे) बन जाते हैं और काबा शरीर छोड़ने के बाद चारण बनते हैं। कमोबेश यही स्थिति निदेशालय में भी है। सचिवालय की तरह यहां क्‍लोज कैडर नहीं होने के बावजूद यहां एक बार लगा कर्मचारी कभी फील्‍ड में नहीं जाता। अस्‍सी प्रतिशत मामलों में ऐसा ही होता है। मेरी खबर में यही दिया गया था कि क्‍लोज कैडर नहीं होने के बावजूद कई कर्मचारी ऐसे हैं जो तीस तीस साल से यही बैठे हैं। अधिक से अधिक उनका अनुभाग ही बदल रहा है।
खबर ने जिस तेजी से असर दिखाया, वह मुझे हैरान करने वाला था। अगले दिन निदेशालय में पहुंचने के साथ ही कर्मचारी और शिक्षक नेता मुझे बुला बुलाकर बात करने लगे। उनके तयशुदा ठिकानों का एक ही दिन में दर्शन कर लिया। पहले तो मुझे झिड़का कि ऐसी क्‍या खबरें लगाते हो। फिर प्‍यार से पूछा कि यह खबर किसने बताई। मैं टाल गया तो समझ गए कि मसाला दिए बिना यह छोरा हमारे ऊपर ही हमला कर देगा। फिर इधर-उधर की खबरें निकलने लगी। किसी एक समूह ने दूसरे की तो तीसरे ने चौथे की खबरें बताई। पहले से चल  रही धड़ेबंदी भी एक ही दिन में टूट गई। दोनों प्रमुख अखबारों के खबरी मुझे खबरें दे रहे थे। शाम साढ़े चार बजे तक तो मैं प्रेस पहुंच गया और तीन खबरें ठोंक दी। रात तक फोन आते रहे। आखिर रात दस बजे तक मैंने कुल जमा सात खबरें दी और तीन प्रेस नोट सबमिट किए।
उस एक दिन के उदाहरण से मैं समझ गया कि प्रेम से बात करना बेकार है। अब तो हाथ में जैसे छड़ी ही उठा ली। किसी एक की खबर का कोई सूत्र भी हाथ में होता तो दस लोगों के बीच में उसकी बात करना शुरू करता। संबंधित अधिकारी या कर्मचारी मुझे रोकता और बाद में कोने में ले जाकर पूरी बात समझाता। इसी दौरान मेरे सोर्सेज भी तेजी से बने। कुछ दिन में तो मैं खबरों को क्रॉस चैक तक करने लगा। पुराने लोगों को बनाया तिलस्‍म टूट चुका था और नए लोग पूरी तरह मेरे लोग थे। चूंकि मैंने खबर लेने के लिए किसी प्रकार का वादा किसी से नहीं किया था, इसलिए कहीं स्‍पैल बाउंड भी नहीं हुआ। कर्मचारी और शिक्षक नेताओं के लिए यह सबसे कठिन बात थी। अपनी मर्जी की खबरें छपवाने के आदी नेताओं को सबसे अधिक पीड़ा हुई। उन्‍होंने कई तरह से मुझे घेरने की कोशिश की, लेकिन मेरे हाथ तब तक बहुत मजबूत छड़ी आ चुकी थी। या तो खबर बताओ, वरना तुम्‍हारी फंसी हुई खबर छाप देते हैं। डेढ़ साल के दौरान मैंने जो चाहा वो छापा। जो नहीं जंचा उसे छापने से साफ इनकार कर दिया। इसका सबसे ज्‍वलंत उदाहरण रहा स्‍कूलों के एकीकरण का। राजस्‍थान सरकार ने निर्णय किया कि जिन स्‍कूलों में अधिक शिक्षक और कम छात्र हैं उन्‍हें करीबी स्‍कूलों में मर्ज कर दिया जाए। शहर में कई स्‍कूल ऐसे थे, जिनमें शिक्षक तो चौदह से बीस तक थे, लेकिन छात्रों की संख्‍या दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंची थी। इस निर्णय से शहरी क्षेत्र में सालों से जमे शिक्षकों पर तगड़ी ग़ाज गिरनी तय थी। सो उन्‍होंने आंदोलन शुरू कर दिया। शिक्षक नेताओं ने मुझसे संपर्क किया और आंदोलन के पक्ष में सॉलिड खबरें डालने के लिए कहा। मैंने साफ इनकार कर दिया। संसाधनों के समुचित उपयोग की एकमात्र सरकारी योजना को मैं धक्‍का कैसे पहुंचा सकता था। एक शिक्षक नेता ने अधिक जोर दिया तो मैंने कहा कि आप चौदह शिक्षक और छह छात्रों वाले स्‍कूल का औचित्‍य सही सिद्ध करके बात दो, मैं खबरें छाप दूंगा। खबरें नहीं आई तो आंदोलन ने भी एक सप्‍ताह के भीतर दम तोड़ दिया।
इन दिनों देख रहा हूं कि सरकारी आदेशों और सरकारी प्रेसनोट का पत्रकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे में किस आधार पर पत्रकार डंडा उठाएंगे और किसे मारेंगे। यह स्थिति अखबारों को इस स्‍तर तक भी उतार सकती है कि वे क्षमा करने लायक भी न बचें...