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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

A Billion ideas : What an idea!!

सौ करोड़ विचारों में मेरे दो विचार

पिछले दिनों दिल्‍ली में एक अलहदा ब्‍लॉगर मीट हुई। अलहदा इस कोण से कि एक राजनीतिक पार्टी ब्‍लॉगरों के विचार जानना चाहती थी। कांग्रेस के ए बिलियन आइडियाज (A Billion ideas) के तहत करीब तीस हिंदी पट्टी के ब्‍लॉगरों को दिल्‍ली आमंत्रित किया गया था। खास बात यह रही कि आमंत्रण के साथ एक बात की तस्‍दीक कर दी गई थी कि दिए गए विषयों में आपको विचार तो करना है, लेकिन समस्‍या पैदा होने के कारणों के बजाय समस्‍या के समाधान पर अधिक ध्‍यान देना है। यह अलग बात है कि गोष्‍ठी के दौरान हिंदी में कुछ तंग हाथ वाले संचालक बार बार इसे निदान कह रहे थे। वे चाहते यही थे कि समाधान बताएं जाएं। 

गोष्‍ठी में कुल जमा चार विषय रखे गए थे। इसके बारे में पहले भेजी गई मेल में स्‍पष्‍ट कर दिया गया था। कि चार विषय कौन कौन से होंगे ? 

Broad themes for the event are
- How to retain the inclusiveness and secular fabric of the nation
- How to harness the potential of youth for innovation
- How to empower women to have a greater say in the household decision making
- How to increase transparency in the governance at all levels.

इनमें से मैं स्‍पष्‍ट रूप से केवल दो ही विषयों पर बता सकता था। सो उन्‍हीं दोनों विषयों पर मैंने ध्‍यान केन्द्रित किया। पहला था यूथ पावर। यूथ पावर पर मेरे विचार कुछ इस प्रकार थे... 

यूथ पावर
"देश के युवाओं के सामने सबसे बड़ी समस्‍या रोजगार है। अगर युवाओं को अपने मन का काम मिल जाए तो युवाओं की शक्ति का सही उपयोग हो सकता है। अगर हमें ह्यूम सोर्स मैनेजमेंट को देखना है तो चीन की ओर देखना पड़ेगा। चीन ने एक बहुत शानदार काम किया। वर्तमान में भारत में मिल रहे टैबलेट, मोबाइल और लैपटॉप चीन से बनकर आ रहे हैं। चीन दुनिया का सबसे बड़ा एक्‍सपोर्टर है। इसका कारण यह नहीं है कि चीन की सरकार ने बड़ी फैक्ट्रियां लगाई या बड़े उद्योगपतियों की सहायता की। बजाय इसके चीन में प्‍लास्टिक और मोबाइल बनाने के सामान को सब्सिडाइज्‍ड किया गया और छोटे उद्यमियों को प्रोत्‍साहित किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि आज चीन में मोबाइल और इस प्रकार के दूसरे गैजेट्स की कॉटेज इंडस्‍ट्री बन गई। छोटे छोटे उद्यमियों को सरकार की इतनी सहायता प्राप्‍त है कि उन्‍हें अपना माल अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में बेचने के लिए किसी प्रकार की अतिरिक्‍त कसरत नहीं करनी पड़ती। वहीं हम अपने देश में देखें तो पता लगता है कि इस प्रकार की इंडस्‍ट्री लगाने के बजाय सरकारें मुफ्त लेपटॉप, टैब और मोबाइल बांट रही है। उत्‍तरप्रदेश और राजस्‍थान में ही राज्‍य सरकारों ने करीब सात लाख टैब का वितरण कर दिया। लेकिन किसी ने भी यहां टैब की उत्‍पादन इकाई स्‍थापित करने पर विचार नहीं किया। हमने चीन से टैब खरीदे और यहां के विद्यार्थियों को बांट दिए। इससे न तो हमें तकनीक के विकास का लाभ मिला न ही स्‍थानीय उद्यमी विकसित हुए। जैसा कि हम जानते हैं कि यह गैजेट्स जल्‍द ही पुराने पड़ने वाले हैं। यानी दो साल बाद इनकी कोई कीमत नहीं रहेगी। तो दूसरे शब्‍दों में कहा जाए तो हमने अपना दोहरा नुकसान किया। सात लाख टैब और मोबाइल के रूप में हम प्‍लास्टिक का कबाड़ खरीदकर एकत्रित करते जा रहे हैं। हमारी सरकार को नव उद्यमियों का सहयोग कर यहां पर भी ऐसी छोटी छोटी एसेंबली यूनिट्स बनानी चाहिए। ताकि स्‍थानीय उद्यमी विकसित हों, बेरोजारों को रोजगार मिले और तकनीक का विकास हो।"

सेक्‍युलर फाइबर
"इस मुद्दे पर मेरा विरोध और विचार एक ही बात है। दरअसल मेरा मानना है कि धर्म नितांत व्‍यक्तिगत विषयवस्‍तु है। सरकार अथवा राज्‍य का इसमें कोई दखल नहीं होना चाहिए। हम धर्मनिरपेक्ष राष्‍ट्र हैं। इसका क्‍या अर्थ लगाया जाए। क्‍या सभी धर्मों में राज्‍य और सरकार को टांग फच्‍चर करनी चाहिए या सभी धर्मों को सम्‍मान देते हुए उन्‍हें अपने स्‍तर पर निपटने देने के लिए छोड़ देना चाहिए। एक सरकार सेक्‍युलर हो सकती है जब वह सभी धर्मों का सम्‍मान करे। लेकिन इससे सरकार को धर्म के भीतर छेड़छाड़ करने या लाभ अथवा दंड से प्रभावित करने का अधिकार तब भी सरकार को नहीं मिलता है। ऐसे में किसी सरकार या शासन की जिम्‍मेदारी बनती है कि राज्‍य के किसी भी व्‍यक्ति को धर्म के आधार पर न तो दंडित किया जाए न ही लाभ दिया जाए। ऐसे में सरकार सेक्‍युलर बनी रह सकती है। यह तभी हो सकता है जब राज्‍य की शक्तियों से मिलने वाले हर प्रकार के लाभ और धर्म (या कहें संप्रदाय) को अलग कर दिया जाए। वर्तमान में सरकारें एक तरफ कानून बना रही हैं कि लाउडस्‍पीकर नहीं बजाया जा सकता तो दूसरी तरफ धर्म या संप्रदाय के आधार पर लाउडस्‍पीकर बजाने की छूट दी जा रही है। एक तरफ सरकार धार्मिक स्‍थल की यात्रा के लिए सब्सिडी और राहत पैकेज जारी कर रही है तो दूसरी ओर कर लगाया जा रहा है। ये दोनों ही स्थितियां एक सेक्‍युलर सरकार के लिए घातक हैं। इससे आम आस्‍थावान नागरिक सरकार को किसी समुदाय विशेष की ओर झुका हुआ मानने लगता है और उसका विश्‍वास राज्‍य पर से उठने लगता है।"


इन दोनों विचारों के अलावा और भी कई मुद्दों पर टेबल शेयर कर रहे साथियों के साथ चर्चा हुई। चर्चा के दौरान कई मुद्दों पर मेरी सहमति बनी तो कई पर मैं सहमत नहीं था। चर्चा के दौरान कई बार लगा कि अलगा व्‍यक्ति मेरे ही विचार बोल रहा है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि जो दूसरे ब्‍लॉगर्स ने बोला मेरे भी विचार वैसे ही थे, लेकिन कमोबेश ब्‍लॉगरों के दिमाग में आने वाले भविष्‍य की तस्‍वीर दिखाई दे रही थी। भले ही एक पार्टी ने अपने खर्च पर ब्‍लॉगर मीट कराई, लेकिन देश के अलग अलग कोनों में स्‍वांत सुखाय लेखन कर रहे ब्‍लॉगरों ने जब अपने विचार रखे तो एक सार्थक निष्‍कर्ष निकलता दिखाई दिया। इस सार्थक बहस और मीट के लिए मैं कांग्रेस के ए बिलियन आइडियाज प्रोजेक्‍ट को साधूवाद देता हूं। 

ब्‍लॉगर मीट के आयोजकों ने मुझे कहा है कि शीघ्र फोटो भेज दिए जाएंगे। जब फोटो मिलेंगे तो उन्‍हें भी यहां चस्‍पा कर दिया जाएगा... :) 

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

Kejriwal phenomenon @ a betel shop

पान की दुकान पर केजरीवाल का असर

बुद्धिजीवियों की एक जमात का मानना है कि केजरीवाल का उदय एक प्रकार का प्रतिक्रियावाद या अराजकतावाद है। मौजूद व्‍यवस्‍था से आहत लोग इस व्‍यवस्‍था को चुनौती देने वालों के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। लेकिन जमीन देखने के लिए हमारे बीकानेर में पान की दुकान से बेहतर स्‍थान और कोई हो नहीं सकता। सभी बौद्धिक, परा बौद्धिक, अधि भौतिक और अबौद्धिक तक की चर्चाएं इन्‍हीं पान (betel) की दुकानों पर होती हैं। 

इन्‍हीं पान की दुकानों में से एक पर बीती शाम मैं भी उलझ गया। मैं खुद को बद्धि जीवी मानकर वहां उतरा था, लेकिन चर्चा के अंत में लोगों ने स्‍पष्‍ट कर दिया कि न तो मेरे अंदर इतनी बुद्धि है कि केजरीवाल को समझ सकूं न इतना सामर्थ्‍य। मेरे अपने तर्क थे और उन लोगों के अपने। चर्चा कुछ इस प्रकार हुई। 

मैंने कहा - केजरीवाल आम आदमी (Aam Aadmi) का स्‍वांग भरकर मीडिया के जरिए लोगों के सेंटिमेंट भुनाने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए मैंने उदाहरण दिया कि इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में गैले गूंगे चैनल को भी प्रति एक सैकण्‍ड का पांच से दस हजार रुपए वसूलना होता है। ऐसे में पूरे पूरे दिन केजरीवाल के गीत गाने वाले न्‍यूज चैनल्‍स का खर्चा का मुफ्त में चलता होगा। या कोई दैवीय सहायता प्राप्‍त होती है। 

जवाब मिला : मीडिया को भी टीआरपी (TRP) चाहिए। आज हर कोई केजरीवाल को देखना चाहता है। ऐसे में मीडिया की मजबूरी है कि वह केजरीवाल और उसके आंदोलन को दिखाए। अगर चैनलों को खुद को दिखाना है तो केजरीवाल को दिखाना ही पड़ेगा। वरना उस चैनल की टीआरपी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी। 

मैंने कहा : केजरीवाल ने आम आदमी के नाम पर जितने आंदोलन किए हैं सभी विफल रहे हैं। केवल जबानी लप्‍पा लप्‍पी (verbal jiggaling) की मुद्रा ही रही है। 

जवाब मिला: अब तक किसने आम आदमी की आवाज उठाई है। भाजपा (BJP) और कांग्रेस (CONGRESS) तो एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। बाकी दल भी अपनी ही रोटियां सेंकने का काम कर रहे हैं। पहली बार कोई आदमी ऐसा आया है, जिसने आम आदमी की बात की है और उसकी ओर से लड़ाई लड़ी है। उसके प्रयास ही काफी हैं। सफलता और विफलता तो ऊपर वाले की देन है। 

मैंने कहा : केजरीवाल कांग्रेस से मिला हुआ है। यह उनकी बी टीम (B Team) है। 

जवाब मिला : कांग्रेस और बीजेपी वाले अपनी रांडी रोणा करते रहेंगे। एक कहेगा दूसरे की बी टीम है और दूसरा कहेगा पहले की बी टीम है। आज केजरीवाल दोनों के भूस भर रहा है। जनता इन भ्रष्‍ट (Currupt) नेताओं की ऐसी तैसी कर देगा। 

मैंने कहा : एक साल पहले आए इस नए नेता के पास न तो देश के लिए वीजन (Vision) है न ही इसका कोई पॉलिटिकल बैकग्राउंड (Political background) है। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि यह आम आदमी को राहत दिलाने का काम करेगा। 

जवाब मिला: जो पहले से अनुभवी लोग हैं उन्‍होंने कौनसे काम करवा दिए। सब अपना घर भरने में लगे हैं। यह बदलाव की बयार लेकर आया है तो जरूर काम करेगा। कम से कम एक नए आदमी को मौका तो दे रहे हैं। 

मैंने कहा : केजरीवाल बहुत अधिक अकल लगाकर काम कर रहा है। केवल दिल्‍ली (Delhi) में आंदोलन करता है और पूरे देश पर छा जाता है। केवल मैट्रो सिटी (Metro city) के लोगों की भावनाएं ही भुना रहा है। देश के अन्‍य हिस्‍सों में इसका कोई खास असर नहीं है। 

अब लोग तैश में आ गए, बोले: भो##** के गांव गांव तक जाकर केजरीवाल का नाम सुन ले। (एक ने खाजूवाला जो कि सीमा से सटा हुआ कस्‍बा है, दूसरे ने श्रीकोलायत, तीसरे ने लूणकरनसर में चल रही हवा के बारे में जानकारी दी।)

जब मेरे तर्क और क्षमता जवाब दे गए तो पान की दुकान पर मेरी जमकर मलामत की गई। मुझे नेताओं का पिठ्ठू करार दिया गया और बताया गया कि मैं जमीनी हकीकत (Ground realities) से कोसों दूर हूं। अब देश में तेजी से बदलाव आ रहा है और इस बदलाव के रथ को केजरीवाल चला रहा है। जल्‍द ही लोकसभा और ग्राम सरपंच तक के चुनावों में आम आदमी पार्टी ही राज करेगी। हर घर में आज टीवी चैनल है और सब देख रहे हैं कि देश में क्‍या हो रहा है।

मैंने रूंआसा होकर पूछा मोदी (Modi) ? 

जवाब आया: मोदी ने किया होगा गुजरात में काम, लेकिन आज देश को अगर जरूरत है तो केजरीवाल की है। वही देश की लय को सुधार सकता है। वही है आने वाले जमाने की ताजी बयार। वहीं से परिवर्तन की शुरूआत होगी। भाजपा और कांग्रेस तो एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। 

अब मैं सोच रहा हूं कि अगर पान की दुकान से लेकर गांवों (Gaanv) तक अगर केजरीवाल फैल चुका है तो क्‍या मोदी केवल अपनी सोशल मीडिया फौज पर ही राज कर रहा है। सोशल मीडिया पर भी देख रहा हूं कि बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका केजरीवाल को हृदय से स्‍वीकार कर चुका है और जिस प्रकार अमिताभ बच्‍चन की छोटी मोटी भूलों को भी पर्दे पर उनकी स्‍टाइल में शामिल कर देखा जाता रहा है, उसी प्रकार केजरीवाल के प्रयासों में रही कमियों को इसी प्रकार नजरअंदाज करने का दौर चल रहा है। 

आपको क्‍या लगता है ? 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

Kejriwal's angle : Paradigm shift or hidden agenda "2014"

मुझे पहला आश्‍चर्य तब हुआ तब राजीव शुक्‍ला (Rajiv Shukla) का चैनल पूरे दिन राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के एक भाषण में रही कमी को लेकर उसकी पूंछ फाड़ने का प्रयास करता रहा। यह अजीब मसला था। अब तक जो संस्‍थान जिन लोगों के भरोसे या सही शब्‍द कहें कि कृपा से जी रहा था, वह अचानक हिंदी का पैरोकार बनकर सीधे राहुल गांधी पर ही आक्रमण कर रहा था। 

                उत्‍तर प्रदेश चुनाव में राहुल गांधी के बाद प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka gandhi wadra) और उनके बच्‍चे भी जब सहानुभूति की लहर पैदा करने में विफल रहे तो कांग्रेस को सत्‍ता विरोधी लहर को दबाने का यही एक तरीका समझ में आया कि इस आग की झुलस को विपरीत दिशा की आग से ही काबू में किया जाए।


आग से आग बुझाने की पद्धतियों में से एक फायर ब्रेक (Fire Break) है। यह दो तरह से काम करती है। पहला तो यह कि जंगल या घास के मैदान की आग के बीच अंतराल पैदा किया जाए ताकि ईंधन की आपूर्ति बाधित हो और साथ ही आग जिस दिशा में बढ़ रही हो, उसी दिशा में आगे जाकर फायर लाइन (Fire line) बना दी जाए। यह फायर लाइन रास्‍ते की ऑक्‍सीजन (Oxygen) को खत्‍म कर देती है और पीछे से आ रही आग बीच का गैप होने और ऑक्‍सीजन की कमी के चलते दम तोड़ देती है। इससे बीहड़ या घास का मैदान बचा रह जाता है। राजनीति के इस बीहड़ को बचाने के‍ लिए केजरीवाल फायर ब्रेकर सिद्ध हो सकते हैं। 


मुझे केजरीवाल शुरू से ही फायर ब्रेकर ही दिखाई दिए।  पहली तो उनकी एंट्री ही रजनीकांत (Rajnikant) वाले अंदाज में होती है। अब चूंकि वे सितारा हैसियत के थे नहीं, तो इसके लिए भारत के दक्षिणी पश्चिमी कोने में अपना काम कर रहे अन्‍ना हजारे (Anna hazare) को उठया गया। आम आदमी (Aam Admi) के नाम पर आंदोलन किया गया। एक के बाद दूसरी हस्तियां कतार में आती गई और उनका दोहन कर केजवरीवाल आगे आते रहे। मैं यह नहीं मानता कि शुरू से ही अरविन्‍द केजरीवाल को ही इस काम के लिए नियुक्‍त किया गया होगा, लेकिन प्रमुख लोगों में एक शामिल रहे होंगे। 

                आगे के सूत्रों को खुला छोड़े रखे जाने के लिए जरूरी है कि एक से अधिक विकल्‍प साथ लेकर ही चला जाए। मैं देखता हूं कि केजरीवाल दूसरों को पछाड़ आगे निकलते गए। लोकपाल (Lokpal) के लिए संघर्ष हुआ। इसके बाद अन्‍ना हजारे का कद घटाने वाला गुजरात का चुनाव हुआ। अन्‍ना का कद घटाने वाला इसलिए क्‍योंकि अन्‍ना को लाया ही इसलिए गया था कि भ्रष्‍टाचार या अन्‍य मुद्दों की बात कर वे जनता में अपनी तगड़ी छवि बनाए जो वास्‍तव में सरकार के विरुद्ध दिखाई दे। इसके बाद गुजरात (Gujrat) चुनाव के समय अन्‍ना का परीक्षण किया गया। जिसमें वे बुरी तरह फेल साबित हुए। 

                यही से अरविन्‍द केजरीवाल घटना का उदय शुरू हो गया था। अब पांच राज्‍यों के चुनाव तक यह फायर लाइन अधिक काम नहीं कर पाई। क्‍योंकि मोदी ने भी गुजरात को छोड़कर कहीं और कुछ भी नहीं किया था। हद तो यह है कि उत्‍तर भारत के अधिकांश राज्‍यों में मोदी के आदमी अभी केवल जमीन तैयार करने का काम कर रहे हैं। जैसे उत्‍तरप्रदेश और बिहार में अमित शाह। ऐसे में सीधा मोदी पर हमला बोले जाने की संभावनाएं क्षीण हो गई। 

                अब पांच राज्‍यों के विधानसभा चुनाव आते हैं तो अपना आकार बढ़ाने में नाकामयाब रही इस फायरलाइन के पास दिल्‍ली (Delhi) का ही विकल्‍प शेष रहता है। क्‍यों‍कि ये फायर फाइटर देख चुके थे कि दिल्‍ली से बाहर महाराष्‍ट्र (Maharashtra) में इसी प्रकार का प्रयास बुरी तरफ फ्लॉप सिद्ध हो चुका था। अन्‍य राज्‍यों में भी धरना प्रदर्शन किए गए, लेकिन कहीं से प्रभावी फीडबैक नहीं मिला। 

(राज्‍यों के छोटे छोटे जिलों में से अधिकांश में सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता केजरीवाल एण्‍ड कंपनी के साथ दिखाई दे रहे हैं, क्‍यों? पता नहीं।)

ऐसे में मेन स्‍ट्रीम मीडिया के साथ भावुक होने वाली मैट्रो दिल्‍ली ही सबसे मुफीद जगह हो सकती थी। केजरीवाल ने यही काम किया। दिल्‍ली में पूरी ताकत झोंक दी गई। पूरी ताकत झोंक दी गई, किसकी ? 

                स्‍पष्‍ट तौर पर न भी कहा जाए तो केवल इस तथ्‍य को समझा जा सकता है कि दिल्‍ली में जितने कुल वोट पड़े उसमें करीब सत्रह प्रतिशत वोट तो केवल आखिरी आधे घंटे में पड़े। अब आम आदमी पार्टी को मिले मतों को देखा जाए तो लगता है कि उन सत्रह प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस को तो वोट नहीं ही दिया होगा। अगर भाजपा को ही वोट देना होता तो शाम साढ़े चार बजे तक किसका इंतजार करते। खैर, आम आदमी पार्टी के नौ कैंडिडेट करीब एक हजार वोटों के अंतर से जीत गए। 

                अगर केजरीवाल एण्‍ड पार्टी को अब भी फायर ब्रेकर ही समझा जाए तो आम आदमी पार्टी की यह जीत उनके खुद के रास्‍ते में एक बड़ी बाधा बनकर उभर आई है। सत्‍ता का मद खुद केजरीवाल पर भारी पड़ रहा है। क्‍योंकि यह फायर लाइन तो बनाई गई है वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए, लेकिन इसका बड़ा भाग यहीं दिल्‍ली में टूट और बिखर रहा है। ऐसे में अगर हवा विपरीत हो जाती है तो यह फायर लाइन की आग ही फायर फाइटर्स को लील लेगी। 

अब मुझे तीन स्थितियां समझ में आ रही है 

                - वर्ष 2014 के चुनाव के लिए सक्रिय बने रहना है और देशभर में आम आदमी पार्टी की जड़ें फैलानी है तो केजरीवाल को दिल्‍ली की गद्दी छोड़नी पड़ेगी। लेकिन यहां एक समस्‍या यह हो गई है कि सभी प्रमुख लोगों को लोकसभा चुनाव के लिए रोका गया था, अब अधिकांश चुनकर आए लोग ऐसे हैं कि दिल्‍ली की गद्दी उन्‍हें सौप दी जाए तो आम आदमी पार्टी की पहली मुख्‍यमंत्री की कुर्सी ही रजिया गुंडों में वाली हालत में पहुंच जाएगी। ऐसे में खुद केजरीवाल को ही यह भार झेलना पड़ेगा। 

                - दिल्‍ली की मुख्‍यमंत्री की कुर्सी को बचाने में कामयाब होते हैं। ऐसे में 7 मार्च के बाद भी राज्‍य सरकार बनी रहती है और कांग्रेस का समर्थन जारी रहता है तो भाजपा के नए नेतृत्‍व और शक्तिशाली विपक्ष को भी झेलना केजरीवाल की मजबूरी होगी। ऐसे में लोकसभा में मोदी से लड़ने का सपना यहीं कुचलकर खत्‍म हो जाएगा। ऐसे में लोकसभा की बागडोर किसी अन्‍य के हाथ में दी जा सकती है। 

छीन झपट कर और पाले पोसे गए इस सपने को केजरीवाल भी किसी और को नहीं देना चाहेंगे। तब वे सरकार गिराकर और कांग्रेस को गालियां निकालते हुए जनता की सहानुभूति के रथ पर सवार हो सकते हैं।  

                - अगर केजरीवाल दिल्‍ली का मोह छोड़कर सीधे लोकसभा की तैयारी करते हैं और पीछे से दिल्‍ली में कुछ ऐसा वैसा हो जाता है तो उनकी हालत हिलते मंच पर खड़े होकर भाषण दे रहे नेताजी जैसी हो जाएगी। नीचे टांगे धूज रही होगी और ऊपर मुंह से बांग निकल रही होगी। 

दिल्‍ली की कुर्सी हाथ में आने के साथ ही केजरीवाल के मुंह में नेवला आ गया है। केजरीवाल ने इससे बचने की बहुत कोशिश की, लेकिन डॉ. हर्षवर्द्धन पहले ही दिन यह तय कर चुके थे कि चूंकि जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया है, सो भाजपा सरकार नहीं बनाएगी। भापजा सरकार बनाती तो केजरीवाल को दोहरी सहायता मिलती। दिखाने के लिए 28 एमएलए होते और बोलने और दोषारोपण के लिए एक और जगह खुल जाती। लेकिन अब जिम्‍मेदारी ही सिर पर आ गिरी है। 

यहीं पर आकर फायर ब्रेकर खुद ब्रेक हो रहा है। 

अब इसे मोदी की किस्‍मत कहें या केजरीवाल की बदकिस्‍मती कि प्रधानमंत्री का सपना देख रहे आम आदमी को दिल्‍ली का ऐसा तख्‍त मिला है जिसके नीचे की सारी चूलें हिली हुई है। अब तक जितना बोला है, उतना कर दिखाना तो शक्तिमान के बस में भी नहीं दिखाई दे रहा। कम से कम लोकसभा चुनाव 2014 तक तो कतई नहीं।

मोदी या कहें भाजपा के लिए जरूरी है कि अब केजरीवाल किसी सूरत में दिल्‍ली की राज्‍य सरकार के ही लिपटे रहें। अगर इस काम में भाजपा विफल रहती है तो आम आदमी पार्टी को पूरे देश में फैलने से कोई रोक नहीं पाएगा। 

मोदी आंधी नहीं सत्‍ता के विरोध का दावानल है 
और एक दावानल केजरीवाल को खड़ा किया जा रहा है। 
जिस बिंदू पर दोनों आमने सामने भिडेंगे वहीं दोनों खत्‍म होंगे।