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रविवार, 12 जून 2011

क्‍या मैं ऐसा ही हूं... ?

आज रवि रतलामी जी ने चेताया कि आपको अपने ब्लॉगिंग व्यक्तित्व का अता-पता है भी? तो हम भी पहुंच गए यह जानने कि हमसे बेहतर हमें कौन जानता है। वहां पहुंचकर देखा कि महज लिंक पेश करना है और आपके व्‍यक्तित्‍व के बारे में विशद (?) जानकारी उपलब्ध है। पहले अपने एक ब्‍लॉग ज्‍योतिष दर्शन का पता किया तो शानदार परिणाम सामने आया। उत्‍साह के मारे अपने दूसरे ब्‍लॉग दिमाग की हलचल के जरिए भी खुद का परीक्षण कर लिया। वह तो और भी शानदार मिला। वाह... देखिए हमारे व्‍यक्तित्‍व के जो पहलु उभरकर सामने आए हैं। क्‍या वास्‍तव में मैं ऐसा ही हूं।

ज्‍योतिष दर्शन ब्‍लॉग के आधार पर मेरा विश्‍लेषण

The active and playful type. They are especially attuned to people and things around them and often full of energy, talking, joking and engaging in physical out-door activities. The Doers are happiest with action-filled work which craves their full attention and focus. They might be very impulsive and more keen on starting something new than following it through. They might have a problem with sitting still or remaining inactive for any period of time.

sidharth

 

दिमाग की हलचल ब्‍लॉग से मिले विश्‍लेषण का निष्‍कर्ष

The independent and problem-solving type. They are especially attuned to the demands of the moment and are highly skilled at seeing and fixing what needs to be fixed. They generally prefer to think things out for themselves and often avoid inter-personal conflicts. The Mechanics enjoy working together with other independent and highly skilled people and often like seek fun and action both in their work and personal life. They enjoy adventure and risk such as in driving race cars or working as policemen and firefighters.

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अपनी इतनी तारीफें पढ़ने के बाद एक वाकया याद आ गया....

एक बार राजस्‍थान के प्रार‍ंभिक शिक्षा निदेशक का सम्‍मान किया गया। उन्‍हें स्‍टेज पर बैठा दिया गया और पढे लिखे और वाकपटु शिक्षकों ने दो घंटे से अधिक समय तक उनकी तारीफों के ऐसे पुल बांधे कि सूरज देवता छिप गए। (मेरा ध्‍यान सूरज देवता पर ही था, क्‍यों‍कि भोज में विलम्‍ब हुआ जा रहा था)। आखिर तारों की रोशनी में निदेशक महोदय उठ खड़े हुए। उन्‍होंने डायस पर आते ही सभी शिक्षकों और कर्मचारियों को तहेदिल से आभार व्‍यक्‍त किया, लेकिन इसके साथ ही अपनी पीड़ा भी व्‍यक्‍त कर दी। उन्‍होंने बताया कि प्राचीन काल में किसी राजा के दरबारियों में किसी व्‍यक्ति को लज्जित करना होता तो राजा उसे सभा में खड़ा कर देता और दूसरे सभासदों से कहता कि इनकी तारीफ में कसीदे गढ़े। जिस व्‍यक्ति की तारीफ राजा के सामने होती वह लज्जित होता रहता। निदेशक महोदय ने कहा कि ज्ञानी लोगों और ईश्‍वर से पहले पूछे जाने वाले गुरुजनों के समक्ष अपनी तारीफें सुनकर उन्‍हें भी लज्‍जा महसूस हो रही है। तबादलों और दूसरे कामों की उम्‍मीद लिए कर्मचारी सकते में आ गए। बाद में निदेशक महोदय ने खुद ही माहौल को हल्‍का कर दिया। ये निदेशक थे श्‍यामसुंदर बिस्‍सा। रिपोर्टर के तौर पर मेरे साथ इनके कई खट्टे मीठे अनुभव रहे, लेकिन इस घटना के बाद मैं निजी तौर पर उनका मुरीद हो गया।

आपने ऊपर मेरी तारीफ तो नहीं पढ़ी ना... मुस्‍कान 

बुधवार, 19 अगस्त 2009

दो मामा की भूखी भानजी

champu bai 

अनाथ चंपूबाई के दो मामा हैं। छोटे हैं जो हल्‍दी की गांठ लेकर पंसारी की दुकान चलाते हैं और बड़े ट्रेडिंग से जुड़े हैं। वे पुराने सामान से लेकर घर के बर्तनों तक की ट्रेडिंग करते हैं। जब चंपूबार्इ के बड़े मामा की शादी पक्‍की हुई तो ससुराल वालों ने पूछा था कि मामा क्‍या करते हैं। तो नानी ने अश्‍वत्‍थामा हतोहत: की तर्ज पर झूठ बोल दिया कि बड़ा बर्तन बेचता है। उनके ससुराल वालों को बाद में बहुत गुस्‍सा आया जब पता चला कि बड़ा तो घर के ही बर्तन बेचता है और पैसा बैंक में जमा कर देता है। शादी में मिले बर्तन भी बड़े ने बेच दिए और पैसा बैंक में जमा करा दिया। नाना ने पूछा कि क्‍या करोगे बेटा पैसा जमा करके। तो बेटा बोला किसी दिन लौटा लाएंगे बड़ी योजनाओं के लिए। तो नाना ने समझाया बड़ी योजनाएं तो मेरा खून चूसने के लिए ही बनाई जाती है फिर तेरा पैसा कहां काम आएगा। लेकिन बड़ा अड़ा रहा। बर्तन बिक गए। घर में खाना पकना बंद हुआ तो घर के बच्‍चों ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत मिल रहे मिड-डे मील को खाना शुरू कर दिया। बड़ा मामा खुश था। क्‍योंकि नाना के ही पैसों से अभियान चल रहा था। बड़ी योजना थी।

अब हाल छोटे का। नाना ने सोचा कि छोटे की भी शादी कर देते हैं। बहु कान खींचेगी तो बड़े से धन निकलवा लेगा। शादी हो गई। शादी होते ही छोटा प्रसन्‍नचित्त रहने लगा। न दिन का ख्‍याल न रात का जीभरकर मजे लूट रहा था। नाना को गुस्‍सा आ गया। एक दिन बिस्‍तर से बाहर खींचा और फेंक दिया बड़े के कमरे के आगे। और कोई चारा न देखकर छोटा बड़े के कमरे में डरते-डरते दाखिल हुआ और पता नहीं क्‍या सांठ-गांठ हुई कि बड़े ने कई बड़ी योजनाएं छोटे को पकड़ा दी। छोटा खुशी-खुशी योजनाएं लेकर अपने कमरे में दाखिल हो गया। नाना देखते रह गए। अब दोनों मामाओं की पांचों अंगुलियां घी में और सिर कढाही में। बाकी बच गए तीन जन। नाना, नानी और अनाथ चंपूबाई। न बड़े ने खाने का पूछा न छोटे ने। दोनों अपनी-अपनी बीवीयों और बच्‍चों के साथ होटल गए और खाना खा आए। चंपूबाई अब भी देख रही थी। धान की गैळ में दोनों मामाओं को घर में बैठी चंपूबाई दिखी ही नहीं। दोनों अपने-अपने कमरों में जाकर सो गए। रात को बड़ी मामी ने मामा से पूछा चंपू ने क्‍या खाया तो बड़े ने कहा छोटा लाया होगा चंपू के लिए। उधर छोटी मामी ने मामा से पूछा तो छोटे मामा ने कहा बड़ा कुछ लाया होगा चंपू के लिए। दो मामाओं की भानजी चंपू को कुछ नहीं मिला।

भूखी चंपूबाई रातभर भूख से तड़पती रही। कुछ दिन यही क्रम चलता रहा। चंपूबाई की भूख बढ़ी तो बाहर निकली और गंगू के घर पहुंच गई। वहां जमकर खाया और घर के राज बताए। गंगू को यही तो चाहिए था। वह घर में घुसा और तोड़-फोड़ मचाकर निकल गया। मामा सोते रह गए। सुबह मामाओं की आंख खुली तो पता चला कि घर में तोड़ फोड़ हुई है। अब दोनों एक दूसरे पर दोष मंढने लगे। चंपूबाई रातभर की जागी हुई थी और भोर में खाना मिला था सो लम्‍बी तान के सो गई। नाना भूखे बैठे किनारे की ओर बैठे देख रहे थे और हंस रहे थे। शाम ढलने तक मामा लड़ते रहे, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।

जब तक राज्‍य और केन्‍द्र के मामाओं के बीच हमारी राष्‍ट्रीय सुरक्षा यो ही भूखों मरेगी तब तक घर में आतंकी हमले होते रहेंगे। घर को योजनाओं के नाम पर मामा खा रहे हैं और चंपूबाई भूख से बेहाल होकर गंगू के हाथों दो रोटी की एवज में बिक रही है। अब तक मेरी समझ में यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि करप्‍शन ऊपर से नीचे आता है या नीचे से ऊपर जाता है।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

ओपन सोर्स ब्‍लॉगिंग का वक्‍त आ गया है

पिछले दिनों चिठ्ठा चर्चा में चोरी पर पूरी एक पोस्‍ट बन गई थी। तब उसमें हो सकता है बहुत से लोगों का ध्‍यान गया हो लेकिन मुझे इस कमेंट ने बहुत प्रभावित किया। यह था कि आप खुद को स्‍वतंत्र महसूस करें मेरे लेखों को चोरी करने के लिए। निशांत मिश्राजी ने इसके प्रति ध्‍यान आकृष्‍ट किया था। मैं पहुंच गया वहां मिले जैन हैबिट्स के Leo Babauta। टाइटल था Open Source Blogging: Feel Free to Steal My Content.

मुझे बात जम गई। पहले भी ब्‍लॉगिंग की रीति नीति और हां साहित्‍य को लेकर काफी चर्चा हो चुकी है। इन सबको देखते हुए मैं ओपन सोर्स ब्‍लॉगिंग को करारा जवाब मान सकता हूं। इस पोस्‍ट को पढ़ने के बाद मुझे भी लगा कि वास्‍तव में कॉपीराइट एक्‍ट और कुछ नहीं बस आपके विचारों को रोकने का एक साधन है। क्‍या हुआ अगर किसी व्‍यक्ति ने मेरा कोई लेख उठा लिया। अगर वह इस लेख को आगे प्रचारित करता है तो खुश होने की बात है कि मेरी क्रिएटिविटी (जितनी भी है) का आगे प्रसार हो रहा है। विचार लगातार आगे बढ़ रहा है। विचार तो ऐसी ही चीज है जितना आगे बढ़ेगा उतना ही प्रबल होगा।

प्रिंट या अन्‍य प्रकाशन माध्‍यमों में कॉपीराइट लगाने की कोशिश अकसर प्रकाशक ही करता है न कि लेखक। लेखक को तो खुशी ही होती होगी जब कोई उसके ही विचारों को अधिक समृद्ध रूप में वापस उसके सामने लेकर आए। लेकिन प्रकाशकों को इससे नुकसान होता है। कुछ समय पहले पॉल कोएलो ने भी कुछ इसी तरह से अपनी नाराजगी जाहिर की थी। उनकी पुस्‍तक द एल्‍केमिस्‍ट की करोड़ो प्रतियां बिक जाने के बाद पॉल ने अपने प्रकाशकों को कहा कि अब इस किताब को मुफ्त जितना सस्‍ता या मुफ्त कर देना चाहिए। लेकिन प्रकाशकों ने उनकी सुनी नहीं। और किताब अब भी बिक रही है। पॉल ने प्रकाशकों से बदला लेने के लिए चार पुस्‍तकें और लिखी और उन्‍हें ऑनलाइन मुफ्त उपलब्ध करा दिया है। जब मैं बबूता को पढ़ रहा था तो मेरे दिमाग में लगातार पॉल ही घूम रहे थे। एल्‍केमिस्‍ट के बाद मुझे इले‍वन मिनट्स हाथ लगी तो मैंने सोचा कि पॉल ऐसे अंधे हैं जिनके हाथ एल्‍केमिस्‍ट का बटेर लग गया होगा। छोटे शहर में रहने का यही नुकसान है कि बाहर क्‍या चल रहा है पता ही नहीं चलता। चर्चा करने वाले दोस्‍त भी सब बाहर जा चुके हैं। ठीक है इसके बाद वैल्‍के‍रीज हाथ आई। इस पुस्‍तक ने फिर से पॉल के प्रति रुचि जगा दी। यहां के एक पुस्‍तक विक्रेता पर दबाव डालकर जहीर मंगवाई और पढ़ी, लेकिन मैं एक प्रतिशत भी विश्‍वास नहीं कर रहा था कि पॉल मुफ्त किताबें भी देंगे।

इन पुस्‍तकों को आप भी यहां  से डाउनलोड कर सकते हैं। ये बिल्‍कुल मुफ्त हैं और पीडीएफ फार्मेट में उपलब्‍ध हैं। पॉल के इस कदम ने मुझे प्रकाशकों की सोच पर एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। बहुत से लोग बहुत क्रिएटिव होते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक विचार मिलने पर उसकी इतनी शानदार पॉलिश करते हैं कि विचार पैदा करने वाला भी अचंभित रह जाता है। मैं ऐसे लोगों का उतना ही सम्‍मान करता हूं जितना कि विचार पैदा करने वाले का।

बबूता की सलाह और पॉल के कदम से प्रेरित होकर मैंने भी अपने ज्‍योतिष दर्शन ब्‍लॉग पर लगाए गए डिस्‍क्‍लेमर को बदल दिया है। अब मेरे लेखों को आप कभी भी कहीं भी इस्‍तेमाल कर सकते हैं। जैसा कि निशांत जी कहते हैं अगर आप अपने ब्‍लॉग से दो पैसे भी नहीं कमा रहे हैं तो अपने लेखों को मुक्‍त कर दीजिए। ठीक है मैं पैसे नहीं कमा रहा लेकिन अपने सृजन को तो कीमती मानता ही हूं। इसके बावजूद अपने विचार को आगे बढ़ाने के लिए मैं चाहूंगा कि सौ से अधिक रीडर रोजाना वाले मेरे ब्‍लॉग से कोई पोस्‍ट कॉपी की जाए और उसे दो सौ रीडर रोज पढ़ें।

शायद गणेश जी ने कहा तथास्‍तु...

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

अकेला केला ही कर दिखाएगा

अभी मेल से मुझे केले के बारे में विशद जानकारियां हासिल हुई हैं। मैंने कॉपी पेस्‍ट कर इसे यहां पोस्‍ट में ठेला है। आप भी देखिए क्‍या फायदे हैं अकेले केले के ही।

Two Bananas a Day Keep all Doctors Away

Never put banana in the refrigerator! !!

Bananas contain three natural sugars - sucrose, fructose and glucose combined with fiber. A banana gives an instant, sustained and substantial boost of energy.

Research has proven that just two bananas provide enough energy for a strenuous 90-minute workout. No wonder the banana is the number one fruit with the world's leading athletes.

But energy isn't the only way a banana can help us keep fit.

It can also help overcome or prevent a substantial number of illnesses and conditions, making it a must to add to our daily diet.

Depression: According to a recent survey undertaken by MIND amongst people suffering from depression , many felt much better after eating a banana. This is because bananas contain tryptophan, a type of protein that the body converts into serotonin, known to make you relax, improve your mood and generally make you feel happier.

PMS: Forget the pills - eat a banana. The vitamin B6 it contains regulates blood glucose levels , which can affect your mood.

Anemia: High in iron, bananas can stimulate the production of hemoglobin in the blood and so helps in cases of anemia.

Blood Pressure: This unique tropical fruit is extremely high in potassium yet low in salt, making it perfect to beat blood pressure. So much so, the US Food and Drug Administration has just allowed the banana industry to make official claims for the fruit's ability to reduce the risk of blood pressure and stroke.

Brain Power: 200 students at a Twickenham (Middlesex) school were helped through their exams this year by eating bananas at breakfast, break, and lunch in a bid to boost their brain power. Research has shown that the potassium-packed fruit can assist learning by making pupils more alert.

Constipation : High in fiber, including bananas in the diet can help restore normal bowel action, helping to overcome the problem without resorting to laxatives.

Hangovers : One of the quickest ways of curing a hangover is to make a banana milkshake, sweetened with honey. The banana calms the stomach and, with the help of the honey, builds up depleted blood sugar levels , while the milk soothes and re-hydrates your system.

Heartburn: Bananas have a natural antacid effect in the body, so if you suffer from heartburn, try eating a banana for soothing relief.

Morning Sickness : Snacking on bananas between meals helps to keep blood sugar levels up and avoid morning sickness .

Mosquito bites: Before reaching for the insect bite cream, try rubbing the affected area with the inside of a banana skin. Many people find it amazingly successful at reducing swelling and irritation.

Nerves: Bananas are high in B vitamins that help calm the nervous system.

Overweight and at work? Studies at the Institute of Psychology in Austria found pressure at work leads to gorging on comfort food like chocolate and crisps. Looking at 5,000 hospital patients, researchers found the most obese were more likely to be in high-pressure jobs. The report concluded that, to avoid panic-induced food cravings, we need to control our blood sugar levels by snacking on high carbohydrate foods every two hours to keep levels steady.

Ulcers: The banana is used as the dietary food against intestinal disorders because of its soft texture and smoothness. It is the only raw fruit that can be eaten without distress in over-chronicler cases. It also neutralizes over-acidity and reduces irritation by coating the lining of the stomach.

Temperature control : Many other cultures see bananas as a "cooling" fruit that can lower both the physical and emotional temperature of expectant mothers. In Thailand, for example, pregnant women eat bananas to ensure their baby is born with a cool temperature.

Seasonal Affective Disorder (SAD):Bananas can help SAD sufferers because they contain the natural mood enhancer tryptophan.

Smoking & Tobacco Use: Bananas can also help people trying to give up smoking. The B6, B12 they contain, as well as the potassium (K) and magnesium (Ma) found in them, help the body recover from the effects of nicotine withdrawal .

Stress: Potassium is a vital mineral, which helps normalize the heartbeat, sends oxygen to the brain and regulates your body's water balance. When we are stressed, our metabolic rate rises, thereby reducing our potassium levels. These can be rebalanced with the help of a high-potassium banana snack.

Strokes: According to research in "The New England Journal of Medicine, 'eating bananas as part of a regular diet can cut the risk of death by strokes by as much as 40%!

Warts: Those keen on natural alternatives swear that if you want to kill off a wart, take a piece of banana skin and place it on the wart, with the yellow side out. Carefully hold the skin in place with a plaster or surgical tape !

So, a banana really is a natural remedy for many ills. When you compare it to an apple, it has four times the protein, twice the carbohydrate, three times the phosphorus, five times the vitamin A and iron, and twice the other vitamins and minerals . It is also rich in potassium and is one of the best value foods around So maybe its time to change that well-known phrase so that we say, "A banana a day keeps the doctor away!"

PS: Bananas must be the reason monkeys are so happy all the time!

Shine your shoesJ Take the INSIDE of the banana skin, and rub directly on the shoe...polish with dry cloth.......

Shine your face J Mix banana with honey and a bit of lemon juice, make paste, apply on your face (beware of skin allergy- so make a test doze first), keep for half an hour every day before sun-rise and wash out... and Your face will shine like fresh banana....

Amazing fruit, really the banana, bringing consolation to the whole humanity.... .....and rather cheap.....So get going...

सोमवार, 13 जुलाई 2009

उड़न तश्‍तरी की सबसे लम्‍बी टिप्‍पणी :)

आज कुछ ऐसा हाथ लगा कि सोचा सबको बताया जाए। यह है एक टिप्‍पणी। हमारे समीर भाई की टिप्‍पणी। जिनके बारे में ब्‍लॉगजगत में मशहूर है कि वे उम्‍दा, बढि़या, रोचक, लगे रहिए, आभार से अधिक कम ही लिखते हैं। प्रतिदिन सैकड़ों पोस्‍ट जो पढ़ने होते हैं। लेकिन इस बार समीरजी को एक इश्‍यू ने ऐसा झकझोरा कि उन्‍होंने पोस्‍ट के साइज की टिप्‍पणी दे मारी। वहां की टिप्‍पणी को में यहां उठा लाया। ताकि सभी लोग उसे देख परख सकें। कहीं टिप्‍पणी बक्‍से में गुम न हो जाए।

तो पहले मैं किस्‍सा बताने की कोशिश करता हूं। रवि रतलामीजी ने  राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी : छपास पीड़ा का इलाज मात्र हैं ब्लॉग? में  ब्‍लॉग और साहित्‍य के बारे में गुड़ी मुड़ी चर्चा की। हमारे इस जगत के तूफानी लेखकों में से एक बालसुब्रमण्यमजी ने सवाल दागा कि क्या ब्लोग साहित्य है? इस पर शिव कुमार मिश्र जी ने कहा कि वही बात...ब्लॉग को साहित्य कहा जा सकता है या नहीं?  पर बहस अब पुरानी हो चुकी है। इसी पोस्‍ट तक आते आते समीरजी ब्‍लॉग और साहित्‍य के बीच गुल्‍ली डंडा करते हुए उकता गए और दे मारी मैराथन टिप्‍पणी। आप ऊपर दिए तीनों लिंक पर जाकर किस्‍सा समझें और बाद में समीरजी की टिप्‍पणी पढ़ें। पहले यह किस्‍सा मुझे मालूम नहीं था। कुछ पता था। इसी दौरान एक पोस्‍ट मैंने भी लिख मारी कि ब्‍लॉग साहित्‍य नहीं है। कन्‍फर्म। यहां तक आते आते तो समीरजी हाथ पर हाथ रखकर बैठने को तैयार हो गए थे। लेकिन उससे पहले की पोस्‍ट और उस पर कमेंट का अवलोकन करने के लिए प्रस्‍तुत है।

समीर भाई शिव कुमार मिश्रजी की पोस्‍ट में कहते हैं

कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे तो आजीवन आभारी रहूँगा और आगे से लेखन को उस परिभाषा की कसौटी में कस कस कर निचोड़ कर ब्लॉग को अरगनी मान सूखने फैला दिया करुँगा. जब हिट्स की चटक धूप में सूख जायेगा तो प्रतिक्रियाओं में मिले अंगारों को इस्तेमाल कर इस्त्री करके किताब की शक्ल में लाऊँगा..सब करुँगा..बस कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे.
साहित्य न हुआ, बीरबल की खिचड़ी हो गई-किसी को पता ही नहीं कितना पकाना है. कभी जैसे राहुल साकृत्यायन और किपलिंग को कह दिया कि पक गई पक गई..अभी खाये भी ठीक से नहीं कि कहने लगे नहीं पकी, नहीं पकी. मजाक बना कर रख दिया है. क्यूँ?
हे प्रभु, क्या जमाना आया है कि अब चार लोग चश्मा लगा कर बतायेंगे कि क्या साहित्य है और क्या नहीं..पाठक क्या घास छिलने को बनें हैं.
मानो आप हमें चपत लगा लगा कर साहित्य रचवा भी लो सिखा पढ़ा कर-फिर पाठक, उनको भी चपत लगाओगे क्या कि चल अब पढ़ इन्हें, ये साहित्यकार हैं. जी लेने दो, महाराज और आप भी जिओ. समय सबके पास लिमिटेड है, लेखक के पास भी और पाठक के पास भी, उस पर से बीच में बैठे आप छाना बीनी में लगे हैं, जबकि सबसे कम समय आप ही के पास है (औसत के हिसाब से):). ये सब छोड़ कर, माना आप ही कागज लुग्दी में साहित्य रच रहे हो, तो रचते काहे नहीं भई. यहाँ क्या करने तराजू लिये चले आ रहे हो? यहाँ तो इलेक्ट्राँनिक तराजू है. बटन दबाओ, झट छपो और पाठक बोले. कागज लुग्दी वाला बट्टा बाट और काँटा मारी की कम ही गुंजाईश है, इससे तो परेशान नहीं हो गये कहीं.
खैर जो मन आये सो करो. हमारे शिव बाबू हम सब की बात कह दिये हैं. वे सो गये हैं और अब हम भी चले सोने!! राम राम जी की!!

शनिवार, 11 जुलाई 2009

ब्‍लॉग साहित्‍य नहीं है। कन्‍फर्म.

मैंने दो प्रवृत्तियां स्‍पष्‍ट तौर पर देखी हैं। पहली जो परिवर्तन हो रहा है उसे स्‍वीकार नहीं करना और दूसरी कि जो नया है उसे पुराने के भीतर फिट करने का प्रयास करना।

अपनी बात कहने से पहले एक किस्‍सा सुनाना चाहता हूं। कुछ दिन पहले हमारे ग्रुप में बात हो रही थी। कुछ महीने पहले कह सकते हैं। ग्रुप के सभी लोगों के पास ऑरिजिनल विंडो एक्‍स पी सर्विस पैक थ्री था। सभी खुश थे और उसी की बातें कर रहे थे। मैंने बीच में तीर चलाया कि रवि रतलामी ने अपने ब्‍लॉग में बताया है कि माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज सेवन जारी किया है। ग्रुप में सभी लोगों ने ऐसे मुंह बिचकाया जैसे मैंने कोई बचकानी बात कह दी हो। मैंने दोबारा स्‍ट्रेस किया। तो कुछ साथी भड़क गए। बोले अब तक जितना कस्‍टमाइजेशन किया है उसका क्‍या होगा। नई विंडो आएगी तो सबकुछ दोबारा करना पड़ेगा। मोझिला जैसे ब्राउजर को दोबारा टूल करना भी टेढा काम है। बाकी छोटे मोटे सब मिलाकर कम से कम पचास सॉफ्टवेयर दोबारा डालने पड़ेंगे और अपडेट भी लेने पड़ेंगे।

मैं यह बात समझता था लेकिन उम्र के जिस दौर से गुजर रहा हूं हर नई चीज पर जल्‍दी पहुंचने की कोशिश में लगा हूं। सो मैं विंडो सेवन ट्राइ करने के लिए तैयार था। लेकिन अगर ग्रुप में एक भी बंदा मेरे साथ न हुआ तो फंसने पर सहायता मिलने की बजाय लानतें ही मिलती। अब मैंने पैंतरा फेंका। मैंने कहा कि वे लोग कितने बेवकूफ हैं जो अब तक विंडो 98 से चिपके हुए हैं। उन्‍हें न तो ग्राफिक्‍स का आनन्‍द आता है न यूनिकोड के जरिए हिन्‍दी लिखने का कुछ अनुभव है। मेरी इस बात पर सभी लोग प्रसन्‍न हो गए। हम लोग सचमुच आनन्‍द ले रहे थे। माहौल रिलेक्‍स हुआ तो मैंने कहा यदि हमने विंडो सेवन के प्रति रिजिडिटी दिखाई तो थोड़े दिन बाद हमारी हालत भी 98 वालों की तरह हो जाएगी। अब हर किसी का माथा ठनक गया। आधे घण्‍टे तक कैंटीन के बाहर धूप में चाय और सिगरेट चल रही थी। वातावरण नि:शब्‍द हो चुका था। वहां से उठे तो दो साथी सेवन डाउनलोड करने के लिए तैयार हो गए। रात को अनलिमिटेड मिलता है सो अगले दिन सुबह ही कॉल आ गई कि डाउनलोड कर लिया है ले जाना। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। अब इसे इस्‍तेमाल कर रहा हूं तो अपने निर्णय पर गर्व होता है।

अब आता हूं मुद्दे पर ब्‍लॉग को साहित्‍य कहने वाले लोगों की भी कमोबेश यही स्थिति है। दरअसल किसी ने घर में एसी लगाया है तो वह साहित्‍य का हिस्‍सा कैसे हुआ। कोई पुराने ग्रंथ की बातों का अनुवाद पेश कर रहा है तो वह साहित्‍य कैसे हुआ। कोई किसी मुद्दे को लेकर चिंतन कर रहा है, कोई खबर की जुगाली कर रहा है, कोई भाषा को दुरुस्‍त करने की बात कर रहा है, कोई घर परिवार के सदस्‍यों की बात कर रहा है, कोई सुंदर तस्‍वीरें पेश कर रहा है, किसी को देश की चिंता है, किसी को गलत भाषा के उपयोग की, कोई अपने पुराने साथियों को याद कर रहा है तो कोई तकनीक के बारे में जानकारी दे रहा है। इन सबमें साहित्‍य का भी एक भाग शामिल है लेकिन सबकुछ साहित्‍य नहीं है। और न ही इसे होना चाहिए। हम लोगों को प्रकाशन का एक नया माध्‍यम मिला है। अपनी बात, अपनी भावनाएं और अपनी समझ दूसरे लोगों तक पहंचाने का जरिया मिला है। इसे किसी एक शब्‍द या विधा से जोड़ देना वैसा ही है जैसे किसी नए ईजाद किए गए उपकरण पर बल्‍ब या बाइसाइकिल जैसा टैग लगा देना।

एक पत्रकार होने के नाते मैं कह सकता हूं कि ब्‍लॉग का सबसे महत्‍वपूर्ण बिंदु यह है कि आपके विचारों और प्रकाशन के बीच कोई माध्‍यम नहीं है। यह बहुत बड़ी बात होती है। जिन लोगों ने पहले अपनी रचनाएं प्रकाशित कराई है उनसे पूछिए कि एक रचना को प्रकाशन के प्रोसेस में कितना इंतजार और मॉडरेशन झेलना पड़ता था। जो लोग आकाशवाणी में बोले हैं वे जानते हैं कि शब्‍द और समय की सीमाएं कई बार विषय का ही गला घोंट देती हैं। टीवी से जुड़े लोगों को पता है कि विचार और उसके संप्रेषण के बीच हमेशा बाजार खड़ा मिलता है। ऐसे में हर दृष्टि से सृजकों को स्‍वतंत्र कर देने वाले माध्‍यम को मैं साहित्‍य नहीं मान सकता। साहित्‍य तो इसका एक बहुत छोटा अंश है।

मेरा निजी अनुभव बताता है कि इंटरनेट पर जहां सैक्‍स सबसे ज्‍यादा बिक रहा है वहां मनोरंजन पाठक, दर्शक या श्रोता की पहली शर्त है। उसे आनन्‍द आएगा तो वह रुकेगा। वरना आगे बढ़ चलेगा। यह टीवी तो नहीं है जो आधे घण्‍टे के सीरियल में बीस मिनट तक कमर्शियल झेलना ही पड़ेगा। इस माध्‍यम ने जिनता सर्जकों को आजाद किया है उतना ही पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों को भी।

आगे समय है इस आजाद वैश्विक गांव में अपनी पहचान बनाने का। अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हमें इतनी सशक्‍त और प्रभावी बात करनी होगी कि पढ़ने वाला रुक जाए, सुनने वाला थम जाए और देखने वाला ठगा सा रह जाए। खुद के खर्च पर रचनाएं छापने वाले लोगों से यह माध्‍यम बहुत आगे निकल चुका है।

बाकी देखते हैं दुनिया इसे किस नजर से देखती है...

रविवार, 5 जुलाई 2009

मैं संक्रामक हो गया हूं !!

अब मैं कह सकता हूं कि मैं संक्रामक ब्‍लॉगर हो गया हूं। पिछले चार-पांच महीने में कई लोगों को ब्‍लॉग शुरू करवा दिए हैं। इनमें से कुछ ब्‍लॉग तो अच्‍छे खासे चल भी रहे हैं। मुझसे बातचीत करने वाले लोग कहते हैं कि थोड़ी देर की बात के बाद ही मैं ब्‍लॉग-ब्‍लॉग बोलने लगता हूं। पहले पोस्‍ट लिखकर पब्लिश करता और लोगों को घर लाकर वह पोस्‍ट पढ़ाता था। अब जहां भी जाता हूं वहां जीमेल अकाउंट बनवाता हूं और ब्‍लॉग शुरू करा देता हूं। मेरे कई  दोस्‍त तो मेरी इस संक्रामक बीमारी के कारण मुझसे कटे-कटे भी रहने लगे हैं। :)

इस संक्रमण का सबसे पहला शिकार थे मेरे सीनियर अनुराग हर्ष जी। उन्‍होंने अपने नाम से ही अपना ब्‍लॉग शुरू किया। अब एक पोस्‍ट लिखते है। मुझे दिखाते हैं और ब्‍लॉगवाणी पर अपने पाठकों के आंकड़े देखते हैं। दूसरा नम्‍बर रहा पीटीआई के फोटोग्राफर दिनेश गुप्‍ता का। उन्‍होंने अपना फोटो ब्‍लॉग WORLD WITH MY EYES बनाया। पहले ही महीने में 55 पोस्‍ट ठेल दी। मैंने कहा बंधुवर कभी कभार हैडिंग भी लिख दिया करो। अब वे हैडिंग लिखकर पोस्‍ट में फोटो ठेलते हैं। इससे आगे अभी मैंने बताया नहीं है सो आगे कुछ करते भी नहीं हैं। तीसरा नम्‍बर कह सकते हैं जूलॉजी के लेक्‍चरर डॉ. प्रताप कटारिया का। उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग desert wildlifer में लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन पहली पोस्‍ट मेरे सामने लिखने के बाद आज तक वापस और कुछ लिखा नहीं है। इसके बाद मैंने ट्राइ किया स्‍तंभकार विनय कौड़ा पर। वे कहते तो हैं ब्‍लॉग शुरू करने के लिए लेकिन करते नहीं हैं। अगली मुलाकात में उन्‍हें ब्‍लॉगर बना ही दूंगा। इसके अलावा फूटी आंख नाम से भी एक ब्‍लॉग शुरू करवा चुका हूं। लेखक ज्ञान संतोषजी अपना नाम नहीं बताना चाहते सो उनका नाम नहीं दे रहा। हां अभी तक उन्‍होंने कोई पोस्‍ट नहीं लिखी है लेकिन शीघ्र ही वे एक कुत्‍्ते का इंटरव्‍यू छापेंगे।

पिछले दिनों जयपुर गया था। वहां मेरे एक दूर के मामाजी हैं डॉ शिव हर्ष। उन्‍होंने बीसेक सालों तक अमरीका में हार्ट सर्जन के तौर प्रेक्टिस की और अब वापस जयपुर आकर रहने लगे हैं। उनके कम्‍प्‍यूटर में कुछ खराबी आई थी। उसे दुरुस्‍त कराने के लिए मुझे बुलाया। कम्‍प्‍यूटर तो हाथों-हाथ ठीक नहीं हुआ लेकिन उनका ब्‍लॉग पहले ही बन गया। आप भी देखिएगा भारत में ह्रदय रोग के कारणों और निवारणों पर उनका ब्‍लॉग हार्ट सिम्‍पलीफाइड। यह ब्‍लॉग अंग्रेजी में ही सही लेकिन है केवल भारतीयों के लिए। डॉ शिव पांच दिन में दो पोस्‍ट ठेल चुके हैं और इसी रफ्तार से आगे बढ़ने वाले हैं। आप वहां पहुंचकर उनकी हौंसला आफजाई कर सकते हैं।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

चल मालिश करा के आते हैं!!?

छोटी काशी बीकानेर में हमेशा ही कुछ न कुछ धार्मिक आयोजन होते रहते हैं। कुछ बड़े तो कुछ छोटे। एक बार एक महाराज आए। प्रखर जी महाराज। उन्‍होंने बीकानेर के धरणीधर महादेव मंदिर में 1008 कुण्‍डीय महायज्ञ शुरू किया था। एक महीने तक मंदिर के पास की सूखी हुई तलाई में होने वाले कार्यक्रम के लिए तलाई को पूरी तरह बालू मिट्टी से ढंक दिया गया। एक बड़ा सभागार बनाया गया। अस्‍थाई सभागार बड़ा मनोरम था। पास ही प्रखरजी महाराज की कुटिया भी बनाई गई। हजारों लोग तलाई का बदला हुआ रूप देखने पहुंचने लगे। बीकानेर के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 1008 जोड़ों ने इस महायज्ञ के लिए पंजीकरण करा लिया था। आयोजन शुरू होने से पहले उसका जबरदस्‍त प्रचार किया गया कि यज्ञ में धन की आहूति देने वाले लोगों को गजब का पुण्‍य मिलेगा। लोगों ने दान देने में कोई कसर नहीं रखी और प्रखर जी महाराज और उनके चेलों ने बटोरने में।

आयोजन शुरू हो गया। हम चूंकि पढ़े लिखे प्रबुद्ध लोगों के परिवार से थे। इसलिए आयोजन से पर्याप्‍त दूरी बनाए हुए थे। फिर भी कौतुहलवश एक बार जाकर देख आए थे कि कैसा दिख रहा आयोजन स्‍थल। अभी आयोजन को शुरू हुए पांच-सात दिन ही हुए थे कि मेरा दोस्‍त प्रभु आया बोला प्रखर जी महाराज के यहां मालिश कराई क्‍या? वह हमेशा ही मुझे हैरान करता रहा है। इस बार तो अति हो गई। मैंने पूछा प्रखरजी महाराज ने यज्ञ के साथ मसाज पार्लर भी खोला है। वो बोला नहीं प्रखर जी महाराज के साथ एक विदेशी शिष्‍य है। उसने शक्तिपात की कला सीखी है। उससे शक्तिपात के बारे में बात करना। तो वह मालिश कर देगा। मेरे लिए यह नई जानकारी थी। मुझे असमंजस में देखकर प्रभु बोला चल मेरे साथ मालिश करा के आते हैं। मैं यंत्रवत् उसके साथ निकल पड़ा। शाम का समय था। यज्ञ की आहूतियां अपने अंतिम चरण में थी। पूरा वातावरण संहिता के श्‍लोकों से गुंजायमान हो रहा था। प्रखरजी महाराज स्‍थानीय जनप्रतिनिधियों को समझा रहे थे कि वे लोग दस करोड़ रुपए एकत्रित करके उन्‍हें दें तो वे बीकानेर में एक वैदिक स्‍कूल स्‍थापित कर सकते हैं। जिसमें सुरम्‍य वातावरण में पढ़ाई संभव हो सकेगी। बड़े-बड़े लोग बैठे थे इसलिए बीच में बोलना उचित नहीं लगा लेकिन मन में आया कि सुरम्‍य वातावरण की इतनी बड़ी कीमत की क्‍या जरूरत है। हम आगे बढ़ गए। कुटिया के पास ही विदेशी शिष्‍य कुछ लोगों को शक्तिपात की जानकारी दे रहे थे लेकिन बीकानेर के मारवाड़ी लोगों को बात पल्‍ले नहीं पड़ रही थी। प्रभु और मैं भी झुण्‍ड में जाकर बैठ गए। कुछ देर में भीड़ कम हुई तो प्रभु ने भगवाधारी विदेशी शिष्‍य को अंग्रेजी में बताया कि मैं दर्शन का विद्यार्थी हूं और शक्तिपात के बारे में जानना चाहता हूं। कुछ देर तक बोझिल ज्ञान से सराबोर करने के बाद जब मैं झपकी लेने की स्‍टेज में आ चुका था तो अचानक उन विदेशी भगवाधारी साधू महाराज ने मेरा सिर सामने से पकड़ा और अपने घुटनों की ओर झुका दिया। वे व्रजासन में बैठे थे। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उन्‍होंने सिर से लेकर मेरी पीठ के आखिरी हिस्‍से तक तेजी से अपने हाथ चलाए(पीटा नहीं :))। इससे मेरी आंखें लाल हो गई। आस-पास बैठे लोगों को लगा कि मुझमें शक्तिपात हो गया है। सच कहूं तो मुझे भी एक बार लगा कि शक्ति बढ़ गई है। मेरा बॉस्‍केटबॉल में स्‍ट्रेचिंग का अनुभव बताता है कि अच्‍छी तरह से स्‍ट्रेच और मसाज हो तो पूरा शरीर हल्‍का हो जाता है। बस वही फीलिंग उस समय हुई। सिर ऊंचा उठाया तो महाराज ने पूछा क्‍यों कुछ महसूस हुआ। मैंने नहीं में सिर हिला दिया। महाराज नाराज हो गए और उठकर चले गए।

बाद में मैं काफी देर तक मेले में घूमता रहा। प्रभु ने महाराज के यहां से छूटते ही पूछा कैसी लगी मालिश। मैंने कहा कि मैं सोच रहा हूं कि दोबारा कैसे कराई जाए। :)

साक्षात प्रखरजी महाराज से एनकाउंटर अगली पोस्‍ट में।

गुरुवार, 25 जून 2009

सब कुछ है गांधीमय (रिंग, रिंग रिंगा भाग तीन)

mahatma-gandhi-indian-hero मैं आजादी के बाद की बात कर रहा हूं। उससे पहले भले ही गांधीजी का जीवंत करिश्‍मा रहा होगा लेकिन इसके बाद कैश कराने की प्रवृत्ति के चलते सबकुछ गांधीमय हो चुका है। गांधी टोपी पहनी तो इसलिए कि गांधीजी ने कहा है और उतारकर रख दी तो इसलिए कि गांधीजी खुद नंगे सिर रहते थे। एक तरफ दलितों के उत्‍थान का विचार है तो दूसरी तरफ दलितों से बराबरी की शुद्ध भावना।

देश में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बन चुकी है। इस कारण नहीं कि मनमोहन सिंह की सरकार ने नरेगा में रोजगार दिया और किसानों के कर्जे माफ किए। या अमरीका से संधि की। बल्कि युवा गांधी के अथक प्रयासों से बुढ़ाती कांग्रेस में नई जान आ गर्इ। युवा नेता ने मंत्री बनने के बजाय संगठन में काम करने की सोची है। अब युवाओं के सामने एक ही लक्ष्‍य है, संगठन को मजबूत करना। परीक्षा दो और सफल हो जाओ। इससे कतार में आखिरी खड़े आदमी को भी लाभ होगा। यही तो गांधीजी चाहते थे।

ठीक है देश का नेतृत्‍व जवान लोग करेंगे। स्‍थानीय प्रतिनिधि से लेकर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर युवा ही देश की बागडोर को थामे रहेंगे। तो बूढ़े क्‍या करेंगे?

बूढे चिंतन करेंगे। आज की समस्‍याएं और गांधी। आज की समस्‍याओं पर चिंतन उन्‍हें मुख्‍यधारा का अहसास कराएगा और गांधी युवाओं की समुद्री आंधी से बचाए रखेगा। तो आइए चिंतन करते हैं आज की कुछ समस्‍याओं पर।

आतंकवाद- आप कहेंगे वाह क्‍या विषय चुना है। आतंकवाद की जड़ असंतोष में है। गांधीजी ने संतोषी प्रवृत्ति का पाठ पढ़ाया था। आतंकवादियों को संतोषी होना चाहिए और सुरक्षा बलों को अहिंसक। बाकी रघुपति राघव राजा राम तो हैं ही। कहीं गए थोड़े ना ही हैं। गांधी हमारे दिल में है और राम सर्वव्‍यापी हैं।

दूसरा मुद्दा बेरोजगारी- (कृपया आरक्षण शब्‍द का इस्‍तेमाल कर इसे राजनीतिक रूप देने की कोशिश न करें।) गांधी ने ग्राम स्‍वराज्‍य का मॉडल दिया था। हर गांव आत्‍मनिर्भर हो तो बेरोजगारी की समस्‍या स्‍वत: ही दूर हो जाएगी। इसके लिए केन्‍द्र की ओर मुंह ताकने की जरूरत नहीं है। संयम और ईमानदारी से ग्राम स्‍वराज्‍य भी बन जाएगा और रामराज्‍य भी आ जाएगा।

सांप्रदायिकता: गांधीजी ने कहा था कि सब मनुष्‍य समान हैं। बस अंग्रेजों को भगा दो। बाकी लोग अपने ही हैं। उनके लिए तो पाकिस्‍तान बनना भी एक सदमा था। गांधीजी ने सर्वजन हिताय की बात की थी। इसमें क्‍या हिन्‍दु, क्‍या मुसलमान, क्‍या सिक्‍ख और क्‍या इसाई। उनकी नजर में तो सब बराबर थे। हमें उनसे सीख लेनी चाहिए।

ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर वरिष्‍ठ नेता पद और लाभ का मोह छोड़कर चिंतन कर सकते हैं। अब देश की बागडोर युवा कंधों पर है तो उन्‍हें देखें और सराहें। जब सलाह की जरूरत होगी तो मांग ली जाएगी। तब तक वे चिंतन करें।

वास्‍तव में गांधी ऐसी चीज है जो हर जगह फिट होती है। किसी भी बिंदु पर चिंतन करो। घुमा फिराकर घुसा दो गांधी में। दलित उद्धारक की छवि से लेकर हजार रुपए के नोट तक गांधी एक जैसे हैं। समस्‍याओं के पैदा होने से लेकर उनके समाधान तक गांधी वैसे ही मुस्‍कुराते हुए मिलते हैं। चलिए अगले करिश्‍मे तक यही सही...

रिंग रिंग रिंगा है आभासी आशावाद। फिल्‍म ने पैदा किया। गरीबी दिखाई। घनघोर दिखाई, विद्रुपताओं की पराकाष्‍ठा दिखाई और अंत में भाग्‍य की जीत दिखाई। भारत भाग्‍य विधाता है और गांधी राष्‍ट्रपिता। स्‍वागत कीजिए पांचवी पीढ़ी के युवा नेता का।

शनिवार, 20 जून 2009

राहत की बात - मैं अकेला नहीं हूं :)

अभी सुरेश चिपलूनकर जी  टिप्पणी सम्बन्धी खुराफ़ात के बारे में बता रहे थे तब पहली बार लगा कि मैं अकेला नहीं हूं। इस कारण नहीं कि वे ज्‍योतिष और वास्‍तु जैसी विधाओं को कोसते रहे हैं। इस विषय पर तो मैंने उनका विरोध किया है। लेकिन उनकी कविता नहीं समझ पाने की स्थिति ने मुझे काफी राहत दी है। अब तक ऐसा लगता था कि दुनिया के अधिकांश पढ़ने लिखने वाले लोग गद्य के अलावा पद्य को आसानी से समझ लेते हैं और सृजन भी कर लेते हैं। इस पोस्‍ट में उन्‍होंने स्‍पष्‍ट कहा है कि उन्‍हें कविता समझ में नहीं आती। दरअसल मुझे भी नहीं आती। :)

इसके बावजूद नेट पर रोजाना पचासों कविताएं नई आती हैं। मौलिक और गहरी। कईयों के तो शब्‍द और वाक्‍य संरचना तक दिमाग के एंटीना को भी छू नहीं पाते। खैर मुझे लगता है मेरे और सुरेश जी के अलावा जहां में और भी होंगे जो सुखनवर न बन पाए हों। वैसे गद्य लिखकर भी मैं भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की परम्‍परा को ही आगे बढ़ा रहा हूं। उन्‍होंने पद्य में अतुकांत का समावेश किया और फिर अभिव्‍यक्ति के क्षेत्र में गद्य को प्रभावी तरीके से शामिल कर दिया। मैं अपने मन की बात सहज होकर कह पा रहा हूं। तब शायद पद्य की इतनी आवश्‍यकता भी नहीं है।

फिर भी उड़न तश्तरी .... को देखता हूं तो कर्मकाण्‍ड की एक बात याद आ जाती है जिसमें बताया गया है कि सरस्‍वती की बीजमंत्र के साथ आराधना करने पर कवित्‍व शक्ति अर्जित की जा सकती है। समीरजी न केवल गद्य में अपनी बात रोचक और गहराई के साथ व्‍यक्‍त करते है और पद्य भी सहज रच लेते हैं। यह मुझमे ईर्ष्‍या भाव जगा देता है।

(मैं यहां द्वेष नहीं कह रहा :))

इसी तरह अनुराग आर्य जी के दिल की बात ही ले लीजिए। वे अपनी बात गद्य के छोटे बड़े टुकड़ों में करते हैं और आखिर में पद्य की तीन या चार लाइने इतनी प्रभावी होती हैं कि पोस्‍ट के नीचे के कमेंट्स में गद्य से अधिक पद्य तालियां बटोरता नजर आता है। यही स्थिति चिट्ठा चर्चा की भी है। अनूपजी पूरी पोस्‍ट लिखने के बाद आखिर में एक लाइना लिखते हैं। यह एक ओर गद्य होता है तो दूसरी ओर लाइन को पूरा करने के चक्‍कर में पद्य जैसा बन जाता है। यह इतनी रोचक होती है कि मैं पूरी पोस्‍ट छोड़कर पहले एक लाइना पर जाता हूं। वहां कुछ दम दिखाई देता है तो बाकी की पोस्‍ट भी पढ़ लेता हूं वरना आगे रवाना। अनूपजी ने कुछ पोस्‍टें तो पूरी ही एक लाइना लिखी हैं। गद्य और पद्य का यह मिलन किसी चिठ्ठा चर्चा में ही हो सकता है। जहां बात समझ नहीं आने पर लिंक पर चटका लगाओ और पहुंच जाओ माजरा समझने के लिए :)

अब सोच रहा हूं कि ऐं, वद् वद् वाग्‍वादिनी के सवा लाख जप करके कवित्‍व शक्ति प्राप्‍त कर ही लेनी चाहिए। लेकिन हमारे यहां कहा जाता है धिके जित्‍ते धिकन्‍दे यानि जब तक चलता रह सकता है चलने दो। ठीक है गद्य ही सही... :)

 

आखिर में बात लिंक रोड की। जयपुर के राजीव जैन जी ने एक नया ब्‍लॉग शुरू किया है। यहां वे क्‍लासिफिकेशन के आधार पर ब्‍लॉग्‍स जमा रहे हैं। इसमें बीकानेर के ब्‍लॉग में मेरे ब्‍लॉग का पता भी है। इसके अलावा कार्टूनिस्‍टों के ब्‍लॉग, हास्‍य व्‍यंग, लेखकों, तकनीकी आदि ब्‍लॉगों के बारे जानकारी दे रहे हैं। फिलहाल बहुत कम ब्‍लॉग इनकी लिस्‍ट में है लेकिन यह लगातार बढ़ता रहा तो एक दिन रेफरल चिठ्ठा बन जाएगा। राजीव जी को शुभकामनाएं।

गुरुवार, 18 जून 2009

चिडि़या पानी तो पी ले, लेकिन दूब न खाए

प्रकृति की नेमतें मुझे और भी हीनता का अनुभव कराती है जब मैं सोचता हूं कि मेरे घर के बगीचे में रखे पाळसिए यानि मिट्टी के बर्तन में रखे पानी को पीने के लिए चिडि़याएं आएं और पानी पीएं। इससे मेरे घर में चिडि़यों का संगीत गूंजता रहेगा। लेकिन इसके साथ ही मैं चाहता हूं कि वे बगीचे में उगी दूब को न खाएं। प्रकृति तो शायद ऐसा नहीं सोचती। बिना किसी रिटर्न की चाहत मुफ्त में हजारों चीजें उपलब्‍ध करा देती हैं जो जिंदगी को और भी भरपूर बना देती हैं।

अब रजनीगंधा और अनोखी मकड़ी

<KENOX S760  / Samsung S760>

रजनीगंधा में खिला फूल और उस पर सफेद जीव छोटा सा

<KENOX S760  / Samsung S760>

पूरी खूबसूरती के साथ

<KENOX S760  / Samsung S760>

वह जीव मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता

<KENOX S760  / Samsung S760>

मोगरा। इसे हाथी मोगरा भी कहते हैं।

जीव के बारे में किसी को पता हो तो बताइएगा। मैंने तो इसे पहली बार देखा है। यह मकड़ी की तरह दिखाई देता है। सभी फोटो इनलार्ज हो सकते हैं।

one more clear photo


शनिवार, 6 जून 2009

आज ही सांस ली है

पिछले कई दिन से जैसे मशीन ही बन गया था। सुबह आठ बजे दिन शुरू होता और रात को तीन बजे खत्‍म होता। अगले दिन सुबह आठ बजे फिर दिन शुरू हो जाता। पर मजा आ गया।

अतिव्‍यस्‍तता के कारणों में से एक प्रमुख कारण था वास्‍तु की कक्षाएं। समर स्‍कूल में मुझे छह दिन तक वास्‍तु संबंधी कक्षाएं लेने का मौका मिला। अभी से पहले कभी पढ़ाया नहीं और पढ़ा भी ढंग से नहीं। कक्षाएं शुरू होने से पहले ही मुझे बता दिया गया कि मेरी अनौपचारिक कक्षा में एक ऐसे सज्‍जन ने भी पंजीकरण कराया है जो एक स्‍थानीय अखबार में वास्‍तु पर नियमित कॉलम लिखते हैं। सच पूछिए तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। बाकी प्रतिभागी भी धुरंधर थे। कक्षा शुरू होने से पहले अठारह दिन तक लगातार पढ़ता रहा। साथ ही मनन भी करता रहा कि कहां से शुरू किया जाए और कहां तक ले जाया जाए। लेकिन अब तक पढ़ा सबकुछ रिकॉल किया। सारे नोट्स दोबारा संभाले। आखिर वह दिन आ गया।

मैं समय से पहले कक्षा में पहुंचा। लेकिन कक्षा खाली मिली तो इधर-उधर घूमने लगा। थोड़ी देर बार कॉर्डिनेटर को जाकर कहा तो उसने बताया कि सभी प्रतिभागी आ चुके हैं। कक्षा के बाहर ही खड़े होंगे। मैं वापस कक्षा की तरफ दौड़ा तो वहां कुछ वरिष्‍ठ पुरुष और महिलाएं खड़े थे। मैं उन्‍हें नजरअंदाज कर कक्षा में घुस गया और बोर्ड साफ करने लगा। मैं जिस बात को अवोईड करना चाह रहा था वही हुई। सबसे पहले स्‍तंभकार कक्षा में आए। और आते ही मेरा इंटरव्‍यू लेने लगे। पूछा क्‍या आता है आपको वास्‍तु के बारे में। आमतौर पर मैं जवाब देता हूं कि कुछ खास नहीं बस सीख रहा हूं। लेकिन अपनी कक्षा में यह बात कहना और वह भी पहले प्रतिभागी को नुकसानप्रद हो सकता था। सो उनकी बात मैं हंसकर टाल गया और समर स्‍कूल और दूसरे विषयों पर बात करने लगा। थोड़ी देर में उन्‍होंने पूछा कि आपको कितने साल हुए हैं अध्‍ययन करते हुए। मैंने गर्व से बताया कि ग्‍यारह साल हुए हैं। तो वे बोले 'बेटा' मैं 1990 से इस व्‍यवसाय में हूं। मेरी पीठ पर पसीना आ गया। वैसे उस दिन गर्मी भी अधिक थी। :)

खैर एक एक कर सभी प्रतिभागी अंदर आते गए और मैं किसी तरह अपना कांफिडेंस संभाले बैठा रहा। सबसे अच्‍छी बात यह रही कि एक हंसमुख बच्‍ची भी वास्‍तु की कक्षा में थी। मैंने उसी से शुरूआत की। मैंने उससे पूछा क्‍या होता है वास्‍तु। वह मुस्‍कुराई और जो भी उसके मन में आया बोलती गई। मेरा काम आसान हो गया। उसकी गलतियों को सुधारते हुए मेरी गाड़ी चलने लगी। पहले दिन आसानी से डेढ़ घण्‍टे तक मैं वास्‍तु के मूल सिद्धांतों के बारे में बताता रहा और उसी दिन मैंने सभी प्रतिभागियों को वास्‍तु की एक पुस्‍तक भवन भास्‍कर जो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित है लाने के लिए कह दिया। यह मेरी पसंदीदा किताब है। फेंग शुई से अछूती और प्राचीन सिद्धांतों से परिपूर्ण। कहीं कोई शंका की गुंजाइश नहीं।

कक्षा खत्‍म होते ही घर आया और किताब को एक बार फिर पूरी पढ़ गया। अब मैं फुल चार्ज था। अगले दिन उन्‍हीं स्‍तंभकार ने दो-तीन बार मुझे टोका लेकिन मैं अपनी रौ में फ्रायड, डेल कारनेगी, स्‍टीफन आर कोवे, एलन पीज और विवेकानन्‍द तक के उद्धरण देते हुए अपनी बात पूरी करता गया और प्रतिभागियों के समक्ष तस्‍वीर स्‍पष्‍ट होती गई। हर किसी के दिमाग में कहीं न कहीं कोई न कोई भ्रांति पहले से थी। अधिकांश ने पहले से वास्‍तु का कुछ न कुछ अध्‍ययन किया हुआ था। अच्‍छी बात यह थी कि किसी ने भवन भास्‍कर नहीं पढ़ी थी। हर रोज एक विषय लेकर उसे पूरा करता और कक्षा के अंत तक किसी ने किसी मॉडल का विश्‍लेषण करता। पांचवे दिन प्रतिभागी परफेक्‍ट मॉडल बनाकर लाए। उन मॉडल्‍स में गलतियां बताई और आखिरी दिन तो दो मॉडल बिल्‍कुल परफेक्‍ट बन गए। हर दिन मेरे और मेरे प्रतिभागियों के चेहरे पर चमक बढ़ती गई। बस एक गड़बड़ हुई कि आखिरी दिन स्‍तंभकार महोदय नहीं आए। कक्षा खत्‍म होने के बाद उनका फोन आया। बोले मैं किसी कारणवश आ नहीं पाया इसलिए माफी चाहता हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं। उस समय मैं कॉर्डिनेटर के पास बैठा था।  उन्‍होंने कहा परीक्षा से डर से नहीं आए होंगे। मैंने कहा परीक्षा की तो कुछ बात ही नहीं थी। तो उन्‍होंने बताया कि हर कोर्स में आखिरी दिन परीक्षा का प्रावधान है। उसमें टॉप रहने वाले विद्यार्थी को पुरस्‍कृत किया जाएगा।

अब बात मेरी समझ में आई कि स्‍तंभकार महोदय को लगा कि मैं परीक्षा लूंगा और फेल कर दूंगा तो उनकी फजीहत होगी लेकिन हकीकत में मुझे परीक्षा के बारे में जानकारी ही नहीं थी। खैर मैंने एक टॉप विद्यार्थी का नाम बता दिया जिसे पुरस्‍कृत किया जाएगा।

इस तरह छह दिन का समय इतना अधिक व्‍यस्‍तता वाला रहा कि न तो ब्‍लॉग पढ़ पाया न लिख पाया। रात को दो बजे के बाद भी बैठता तो केवल केरल पुराण की कोई नई कथा पढ़ने या इक्‍का दुक्‍का दूसरे ब्‍लॉग देखने। इसी दौरान कुर्सी पर ही नींद आ जाती।

खैर आज पुरानी सारी मेल देखी। ज्‍योतिष दर्शन पर लेख डाला और यहां आपबीती सुनाने आ गया। अच्‍छा रहा ये सप्‍ताह...

गुरुवार, 21 मई 2009

जो ब्‍लॉगर मुझे प्रभावित करते हैं - चिठ्ठा चर्चा

पिछले कई दिन से लिखने के बजाय पढ़ने का क्रम बना हुआ है। नेट पर बैठता हूं। पहले अपने पसंदीदा ब्‍लॉग्‍स को खोलकर पढ़ता हूं। फिर वहां मिली कडि़यों से आगे बढ़ता जाता हूं। दो चार या छह घण्‍टे तक यही क्रम चलता है। इस दौरान लगा कि कई चिठ्ठे बहुत अच्‍छे हैं। मुख्‍यतया कंटेट के मामले में। सोचा अन्‍य पाठकों को भी बताया जाए। अब इसका लहजा स्‍वत: ही चिठ्ठा चर्चा जैसा बन रहा है। देखिएगा।

केरल पुराण   बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायणजी एक के बाद दूसरी केरल की शानदार कहानियां सुना रहे हैं। बीच-बीच में एक दो दिन का गैप आता है तो लगता है अंतराल में सदियां बीत गई। हर कहानी बहुत शानदार। और अनुवाद लगातार निखरता जा रहा है। कई कथाएं तो छह या सात खण्‍डों में भी हैं। रसास्‍वादन कीजिएगा।

लिख डाला में शाहिद मिर्जाजी  यह बिल्‍कुल लॉटरी लगने जैसा अनुभव है। शाहिद मिर्जा जी को जो लोग जानते हैं। यानि लाखों लोगों को पता है कि उनका लेखन कैसा रहा है। उनकी पत्‍नी वर्षा भम्‍भाणी मिर्जा जी ने अपने ब्‍लॉग लिख डाला में उनका एक लेख पिछले दिनों प्रकाशित किया। सालों पहले लिखा गया लेख आज भी उतना ही सटीक है। इसे कालजयी कृति कह सकते हैं। देखिएगा...

Life is beautiful  इस ब्‍लॉग के बारे में शायद रविरतलामीजी ने बताया था। रंगीन चित्रों में कला से अधिक जीवन ढूंढने की कोशिश करता यह ब्‍लॉग वाकई शानदार है। हर पोस्‍ट में पिछली पोस्‍ट से अधिक सशक्‍त अभिव्‍यक्ति दिखाई देती है। हैं बस चित्र ही...

ज्‍योतिष की सार्थकता पंडित डीके शर्माजी अब तक सॉफ्ट अंदाज में अपनी बातें कहते रहे हैं। उनके ताजे लेख में तो उन्‍होंने विज्ञान की सबसे एडवांस शाखा अंतरिक्ष विज्ञान के समक्ष ही चुनौती पेश कर दी है। मेरा मतान्‍तर यह है कि ज्‍योतिष को ज्‍योतिष ही रहने दिया जाए उसे विज्ञान सिद्ध करने के चक्‍कर में अधिक कचरा होता है। क्‍यों न अब विज्ञान को ही ज्‍येातिष के पैमाने पर परखने का प्रयास किया जाए।

निशांत का हिंदीज़ेन ब्लॉग  निशांत मिश्राजी ने जेन कथाओं के साथ इस ब्‍लॉग की शुरुआत की। शुरू में छोटी छोटी कहानियां आ रही थी। बाद में कुछ बड़ी और बहुत बड़ी पोस्‍टें भी आई। लेकिन अब भी छोटी प्रेरक कथाओं का क्रम चालू है। हर रोज इस ब्‍लॉग पर एक तो ऐसी कथा होती ही है। कभी सुनी हुई तो कभी बिल्‍कुल नई। पिकासो और आइंस्‍टाइन के वृत्‍तांत को कमाल के हैं। इसे फीड रीडर से नियमित पढ़ा जा सकता है। मैं इस ब्‍लॉग का फैन हूं।

संजय व्यासजी ये जोधपुर के हैं। पिछले दिनों पहली बार इनके ब्‍लॉग पर गया और एक अभिशप्‍त कस्‍बे की कहानी पढ़कर इनका मुरीद हो गया। अब गूगल फ्रेंड कनेक्‍ट के माध्‍यम से इनसे जुड़ गया हूं और आगे नियमित पढ़ने की कोशिश करूंगा। आप भी इन्‍हें पढ़ सकते हैं। इनके लेखन में ताजे पानी का अहसास होता है।

डॉ अनुराग आर्य इनके ब्‍लॉग पर पहले भी जाता रहा हूं लेकिन पिछली पोस्‍ट में अनुराग जी ने क्‍लीन बोल्‍ड कर दिया। तर्जुमा था 'जीनियस डोंट फॉल इन लव' और इसका सुधार था 'जीनियस डोंट फॉल इन लव- इट हैपंस' आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं। आप जब भी वहां पहुंचेंगे तो अपने छात्र जीवन और उन दोस्‍तों को जरूर याद करेंगे जो बेगरज आपके यार रहे हैं।

बस इतना ही... बाकी के बारे में फिर कभी बताउंगा। ब्‍लॉग के लिंक उठाना और उन्‍हें एक एक कर जमाना वाकई कठिन काम है। चिठ्ठा चर्चा नियमित रूप से करने वालों को साधुवाद। :)

बुधवार, 20 मई 2009

याद आई फैशन परेड

पिछले दिनों मेरे नानीजी श्रीमती राधादेवी हर्ष जयपुर से बीकानेर आई। अपने आवश्‍यक काम निपटाने के दौरान एक दिन मुझे पुराने घर बुलाया और मुझे एक शर्ट दिया। लाल चौकड़ी वाला। यह शर्ट मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में  पहनता था। मैंने मुस्‍कुराते हुए पूछा ये फैशन परेड के लिए है क्‍या ?

तो नानीजी भी हंस पड़ी बोली तुम्‍हें नहीं दे रही, कान्‍हे की मां को दे देना। यह सामान्‍य काम था। मोटरसाइकिल में शर्ट की थैली को अटका लिया। घर आया तो याद आया कि शर्ट पड़ा है। मैंने बताया कि कान्‍हे के लिए नानीजी ने कोई शर्ट भेजा है वह मेरा पुराना शर्ट है। कान्‍हे की मां दौड़ी- दौड़ी बाहर गई और शर्ट ले आई। हाथों-हाथ कान्‍हे को पहनाकर दिखाया। उस समय कान्‍हे और उसकी मां की आंखों की चमक देखने लायक थी। पता नहीं पुरुष हूं इसलिए या मूढ हूं इसलिए, मुझे कभी समझ नहीं आया कि पुराना शर्ट कुतूहल कैसे पैदा कर सकता है। जो भी हो मुझे अपनी फैशन परेड याद आ गई।

फैशन टीवी के जमाने से बहुत साल पहले मेरे घर में फैशन परेड का जमाना आ गया था। साल में दो बार यह परेड होती। रंगबिरंगे कपड़े, जमा जमाया रैम्‍प और केवल जज। हां जी जितने दर्शक होते उतने ही जज होते। एकाध आया-गया भी अपनी राय जरूर भेंट चढ़ा जाता। बस तकलीफ तब होती जब अनफिट कपड़ों में हमें फिट करने का प्रयास किया जाता। सर्दियां खत्‍म होकर गर्मियां शुरु हो या गर्मियां खत्‍म होकर सर्दियां शुरू हो। नानीजी पुराने कपड़े निकालकर बैठ जाती और मुझे और भाई आनन्‍द को एक एक कर आवाज देती। बीते मौसम में कम बार पहने हुए कपड़े, मामा के कपड़े और मामा के मामा के कपड़े और कई साल पहले सिलाई हुए कपड़े। सब एक जगह पड़े होते। पैंट की हाफपेंट बनती और शर्ट की बंडी। कुल मिलाकर कपड़ों में हमें फिट किया जाता। अब ये कपड़े दुरुस्‍त भी लग रहे हैं या नहीं इसे देखने के लिए अन्‍दर वाले कमरे से आंगन पार करते हुए गैलेरी तक चलना होता और वहां से लौटना होता। ड्रेस डिजाइन, कांबिनेशन, लैंथ, चालू फैशन को किसी तरह मैच करने का प्रयास किया जाता। गर्मी की छुट्टियों में नानीजी (जो खुद अध्‍यापिका थी) हमारी तरह पूरी तरह फ्री होती। तो, किसी भी सुबह यह क्रम शुरू हो जाता और अगले कई दिन तक जारी रहता। इस दौरान जा पहचान के लोग, रिश्‍तेदार और मामाओं के दोस्‍त तक मिलने के लिए आते। हर किसी की अपनी राय होती। किसी को रंग की फिक्र होती तो किसी को डिजाइन की, कोई कांबिनेशन पर ध्‍यान देता तो कोई बचत के प्रति जागरुक दिखाई देता। पचासों ड्रेस ट्राई करने के बाद पांच-सात ड्रेस ऐसी होती जिनको कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के लिए रख लिया जाता और अधिकतम राय जुटाने के प्रयास किए जाते। इसी क्रम में सात ड्रेस को उनचास बार पहनकर दिखाना पड़ता और रैम्‍प वही रहता। अन्‍दर वाले कमरे से आंगन पार करते हुए गैलेरी तक। कई दिनों तक चलने वाले इस क्रम में अगर हम दोनों में से कोई 'बागी' हो जाता तो उसकी खैर नहीं। नानीजी झल्‍ला जाते। कहते मैं इतनी मेहनत से इन बच्‍चों के लिए यह काम कर रही हूं और इन्‍हें कदर ही नहीं है। हम हारकर फिर से परेड में जुट जाते।

 

हमारी बगिया में खिला एक और सुंदर फूल

<KENOX S760  / Samsung S760>

मुझे इसका नाम पता नहीं है। यह आकार में काफी छोटा है और हमारा माली इसे फुलवारी कहता है। किसी को पता हो तो बताने की कृपा करें।

मंगलवार, 12 मई 2009

जब अवार्ड लेकर आया था।


जनवरी में राजस्‍थान पत्रिका के पत्रकारिता पुरस्‍कारों में बीकानेर की जस्‍ट टीम को मिला बैस्‍ट स्‍पेशल कवरेज कैटेगरी में अवार्ड। लेने मुझे भेजा गया था। चित्र में दाएं से दूसरे आगे बैठे हुए पत्रकारों में से एक। 

सोमवार, 11 मई 2009

छोटे शहर के वाशिंदे और रंगीन पल

यह बीकानेर का सार्दुल सिंह सर्किल है। बीकानेर रियासत के कुछ विश्‍वप्रसिद्ध राजा हुए हैं। उनमें से एक थे सार्दुल सिंह। यह फोटो संभवतया अजीज भाई का खींचा हुआ है। बीकानेर स्‍थापना दिवस, छब्‍बीस जनवरी और पंद्रह अगस्‍त को यह इसी तरह रौशन होता है।

 
मुशायरा 
मेरा एक ही दोस्‍त ऐसा है जो शेरो शायरी करता है। वली मोहम्‍मद गौरी। फ्रेंड्स एकता कमेटी बना रखी है। इसी नाम से फ्रेंड्स एकता पार्क भी है। इसी पार्क में वली भाई मुशायरा करते हैं। हिन्‍दी, अंग्रेजी और राजस्‍थानी के कवियों को भी बुला लेते हैं। फिर इसे नाम दिया जाता है विविध भाषा या बहुभाषा कविता संगोष्‍ठी। मैंने एक बार शिरकत की थी। यह शिरकत शब्‍द भी वहीं से सीखकर आया हूं। नीचे दिया गया फोटो हमारे फोटो अजीज भुट्टा जी का खींचा हुआ है। मेरे दोस्‍त का है सो मैंने लगा लिया है। माइक पर मुंह लगाए बैठे हैं वली मोहम्‍मद गौरी। साथ में अन्‍य विधाओं के कवि और गणमान्‍य लोग भी बैठे हैं। (अब वली भाई गा रहे हैं तो कोई तो झेलेगा ही। :) )



सेलिब्रिटी मेरे साथ ... 
और यह है राजा हसन। इसने बहुत जिद की तो मैंने इसके साथ फोटो खिंचवा लिया। वैसे ऑफिस में सब कह रहे थे कि मैं जिद कर रहा था। पता नहीं मुझे स्‍पष्‍ट याद नहीं है। लेकिन आप लोगों को राजा हसन याद होगा। सारेगामापा में राजा ने जो वंदे मातरम गाया था। उस परफार्मेंस में तो राजा ने रहमान को भी पीछे छोड़ दिया था। यह वही राजा हसन है। 


अगली बार फिर कुछ दृश्‍य एकत्र करने की कोशिश करूंगा। जैसा कि ज्ञानदत्त पाण्‍डेजी कहते हैं कैमरा तो पोस्‍ट एम्‍बेडेड गैजेट है। 

गुरुवार, 7 मई 2009

कुछ ऐसा है मेरा बीकाणा

चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा किया। इस दौरान कैमरा भी हाथ में था सो कुछ तस्‍वीरें ऐसी भी ली जो भले ही चुनाव के काम की न हो लेकिन बीकानेर को प्रदर्शित करने वाली हो सकती हैं। 

मैंने अपनी नजर से बीकानेर को पेश करने का प्रयास किया है। गौर फरमाइए। 

  
छोटा फॉर्म हाउस। वैसे रेगिस्‍तान में अरंडी का पेड़ भी वृक्ष की शोभा पाता है। यहां तो सचमुच का पेड़ है। हां भरा नहीं है लेकिन पूरा है। पुराने तरीके की झोंपड़ी। आजकल तो बीकानेर में टूरिज्‍म के लिहाज से भी झोंपडि़यां बनने लगी हैं। उनमें एसी और कूलर भी लगे होते हैं।

धोरों पर बनने वाली ये लकीरें आम दिनों में अधिक स्‍पष्‍ट होती है। मैं जिस क्षेत्र में था वहां वनस्‍पति बढ़ने लगी है सो धोरे कम हो रहे हैं और धूल की लकीरें भी। 

भीषण गर्मी में कीकर की छांव में भेड़ें आराम फरमा रही हैं। 
आ लेके चलूं तुझे ऐसे गगन के तले, जहां गम भी न हो आसूं भी न हो
 
रेगिस्‍तान के जहाज के लिए चालीस डिग्री तापमान कुछ भी नहीं है। वह आराम से बैठा है। :) 

शुक्रवार, 1 मई 2009

ये तो टू- मच हो गया। हयं ?

आज अमितजी की नजर से दुनिया देखी तो हिट लिस्‍ट बना ही डालने की तैयारी करने लगा। बाद में देखा तो 99 टास्‍क के अलावा कुछ और भी दिमाग में आया तो जोड़ दिया। कुछ मेरे से संबद्ध नहीं था सो छोड़ दिया। पलटकर नजर डाली तो लगा कि ये तो टू-मच हो गया।

  1. अपना ब्लॉग आरंभ किया- कौनसा वाला, खुद के नाम वाला या विषय विशेष का। अब तक बारह ब्‍लॉग का सदस्‍य बन चुका हूं। कभी कभी सोचता हूं पता नहीं क्‍यों लिख मार रहा हूं।
  2. तारों की छांव में नींद ली- जमकर ली। अब तक तो बीकानेर में संभव है कि तारों की छांव में सोया जा सके। कुछ सालों बाद घर में कैटेलिटिक कन्‍वर्टर लगा लूंगा और एयरटाइट कमरे में सोउंगा, प्रदूषण से बचने के लिए।
  3. संगीत बैन्ड में कोई वाद्य यंत्र बजाया- एक बार बजाया, फिर उपस्थित श्रोतागणों ने मुझे बजाया, उसके बाद भूलकर भी कुछ नहीं बजाया।
  4. अमेरिका के हवाई द्वीपों की सैर करी- उसकी खोज हो चुकी है क्‍या। यानि अब कुछ भी नहीं बचा है एक्‍सप्‍लोरेशन के‍ लिए। यह ख्‍याल ही मुझे डिप्रेस कर देता है।
  5. उल्का वर्षा देखी - हां देखी, और हर बार कुछ कुछ होता है स्‍टाइल में विश मांगी। कुछ पूरी भी हो गई। जैसे कम से कम आज कोई गाली न दे।
  6. औकात से अधिक दान दिया - किसकी औकात, मेरी या दान लेने वाले की।
  7. डिज़नीलैन्ड की सैर करी - एम्‍युजमेंट पार्क के नाम पर एक बार अप्‍पूघर गया था दिल्‍ली में, उसकी यादें आज तक ताजा है। माइ फेयर लेडी से उतरने के बाद जी भरकर कै की।
  8. पर्वत पर चढ़ाई करी - मेरी पत्‍नी ने की है, कई बार वे रौ में आ जाती हैं तो उनके साथ ही कर लेता हूं। दो चार घण्‍टे लगते हैं। चाय की चाय और पहाड़ की चढ़ाई मुफ्त।
  9. प्रेयिंग मैन्टिस (praying mantis) कीड़े को हाथ में पकड़ा - यह टिड्डे, जोंक, हैलीकॉप्‍टर, सांप, केंचुए, कॉकरोच से अलग होता है क्‍या।
  10. सोलो गाना गाया - हें हें हें हें।
  11. बंजी जंप करी - दिल ने की है शरीर की बाकी है।
  12. पेरिस गए - इसे भी खोज लिया गया। दुख की बात है।
  13. समुद्र में बिजली का तूफ़ान देखा - रेत के समुद्र में घटोलिए आते हैं। बिजली बादलों में होती है धोरों में नहीं। सो घटोलिए देखे हैं। बहुत शानदार नजारा होता है।
  14. कोई कला शुरुआत से अपने आप सीखी - हां, सीखी, ज्‍योतिष, लोग इसे मूर्ख बनाने की कला कहते हैं।
  15. किसी बच्चे को गोद (adopt) लिया - एक कुत्‍ते का बच्‍चा लिया था, दुख के साथ कहता हूं उसे ढंग से पाल नहीं पाया। अब वो किसी और के पास है और मुझे पहचानने से इनकार करता है।
  16. कुतुब मीनार को देखा- देखा, वहां लिखे लोगों के प्रेम पत्रों को देखा, वैसे इस इमारत से इतना प्रभावित हुआ कि कुछ लम्‍बे लोगों को कुतुबमीनार बोल दिया। आज तक उनके संबंध वापस सुधरे नहीं हैं।
  17. अपने लिए सब्ज़ी उगाई - मैंने तो नहीं मेरी पत्‍नी ने  उगाए, बैंगन, कल ही उसका साग खाया था। अब किचन गार्डन में भिंडी का इंतजार है।
  18. फ्रांस में मोनालिसा देखी - हां, क्‍या वो गर्भवती थी ?
  19. रात के सफ़र में ट्रेन में नींद ली - हां, एक बार, जब सामान लेडीज कपार्टमेंट में था और मैं थर्डक्‍लास में था, तब।
  20. तकिए द्वारा लड़ाई की- हां, करता रहा हूं,... तकिया माने?
  21. सड़क पर किसी अंजान व्यक्ति से लिफ़्ट ली - मांगी पर मिली नहीं।
  22. स्वस्थ होते हुए भी ऑफिस से बीमारी के लिए छुट्टी ली - अभी अभी छुट्टियों से लौटा हूं। बॉस बहुत नाराज हैं। सहकर्मी ईर्ष्‍या कर रहे हैं। :)
  23. बर्फ़ का किला बनाया  - बर्फ ? रेत का किला बनाया। हवा के झोंके से ढह गया।
  24. मेमने को गोद में उठाया  -  ..... वह तो ..
  25. बिना किसी वस्त्र के नग्न ही पानी में उतरे (तरण ताल, नदी, तालाब, समुद्र अथवा बाथ टब इत्यादि में) ही ही ही ही, इस सवाल में बाथरूम नहीं जुड़ सकता क्‍या।
  26. मैराथन रेस में दौड़ लगाई - हां, पीएमटी पांच बार दी, हर बार फेल होता रहा, मैराथन हारने का सा अनुभव रहा।
  27. वेनिस में गोन्डोला (एक तरह की नाव) में सवारी करी - ये इतनी जगहें ढूंढ कैसे ली गई, अभी तो मैंने अपनी यात्रा शुरू भी नहीं की है। कहां कहां जाउंगा।
  28. पूर्ण ग्रहण देखा - परिवार के विरोध के बावजूद देखा, हमारे यहां माना जाता है कि ग्रहण देखने से बच्‍चे पगला जाते हैं, अब तो सब लोग मानने भी लगे हैं कि मेरे ऊपर ग्रहण का कुछ असर है।
  29. सूर्योदय अथवा सूर्यास्त देखा- सालों पहले देखा था, छत पर सो रहा था,  सूर्योदय देखकर सोचा कि जल्‍दी दिन उग आया अभी कुछ नींद और खींच सकता था। और सूर्यास्‍त भी देखा तो सोचा कि पूरी ताकत से काम किया लेकिन दिन छोटा रह गया।
  30. हाफ कोर्ट से काउंट किया बॉस्‍केटबॉल में –  हां किया, मैं खुद अब तक सनाके में हूं कि बॉल बॉस्‍केट में पहुंची कैसे।
  31. समुद्र पर्यटन (cruise) पर गए - हां, ऊंट पर बैठकर।
  32. नियाग्रा फॉल्स स्वयं देखा - कम्‍प्यूटर पर ही देखा। ऑनलाइन। स्‍वयं देखा, ...
  33. पूर्वजों की जन्मभूमि देखने गए - अब तक वहीं जमा हूं।
  34. किसी कबीले के रहन सहन को नज़दीक से देखा - कबीलाई संस्‍कृति अब भी है बस अंदाज बदल गए हैं। कबीलों का शहरीकरण कह सकते हैं। एक मुखिया और बाकी प्रजा। संयुक्‍त परिवार भी एक कबीला ही होता है।
  35. अपने आप एक नई भाषा स्वयं सीखी- हां, सितारों की भाषा सीखी, पहले तो उन्‍हें सुन भी पाता था, अब केवल संकेत बचे हैं। ज्ञान बढ़ेगा तो और भी मूढ़ हो जाउंगा।
  36. इतना धन अर्जित किया कि पूर्णतया संतुष्ट हुए - कमाने से पहले ही संतुष्‍ट था, अब तो असंतुष्‍टता बढ़ रही है।
  37. पिसा की झुकती मीनार (Leaning Tower) देखी - गिरती देखी, कई पीसा की मीनारें, तब सोचा, तुलसी नर का क्‍या बड़ा समय बड़ा बलवान।
  38. रॉक क्लाइम्बिंग करी - बस देखता रहा, की नहीं, ओशो याद आ गए, वे कहते थे, साक्षी भाव से देखो, काया तो कष्‍ट देने से साक्षी भाव अपना लेना अधिक सहज है।
  39. कैरीओकी (karaoke) गाया - हें, हें, हें हें, कितनी बार करना है पता नहीं,
  40. किसी अंजान को रेस्तरां में खाना खिलाया - हां, टीना के साथ, टीना यानि देयर इज नो अल्‍टरनेटिव।
  41. अफ़्रीका गए - लोगों को एस्‍प्‍लोरेशन के अलावा और कोई काम नहीं है क्‍या।
  42. चांदनी रात में धोरों की सैर करी - हां, और गाना भी सुना, मोरिया आछो बोल्‍यो रे धरती रात मां। छनन, छन चूडि़यां, छमक गई रे बालमा..
  43. एम्बुलेन्स में ले जाया गया - हां, अपेंडिक्‍स का ऑपरेशन था, उस समय सबकी जान सूखी हुई थी और मैं आराम से लेटा हुआ सबको देख रहा था। इमरजेंसी ऑपरेशन हुआ।
  44. अपनी तस्वीर बनवाई (फोटो नहीं) - कई दिन से एक आर्टिस्‍ट को कह रहा हूं, लेकिन न मुझे समय मिल रहा है न उसे।
  45. बरसात में चुंबन लिया/दिया - हें हें रेगिस्‍तान में बारिश ही कम होती है, प्रायिकता के सिद्धांत के अनुसार बरसात और चुंबन को मिलाया जाए तो संभावनाएं बहुत क्षीण हो जाती है, सो हमने तो बारिश का इंतजार नहीं किया।
  46. मिट्टी में खेले- और किसमें खेलते।
  47. ड्राईव-इन सिनेमा देखा - यह क्‍या होता है।
  48. किसी फिल्म में नज़र आए - कई बार कोशिश की, लेकिन हीरो लोग ही डर जाते हैं, मेरी ओर इशारा करके निकलवा देते हैं यूनिट से।
  49. चीन की बड़ी दीवार देखी - आप महंगाई और सुविधाओं के बीच की बात कर रहे हैं।
  50. अपना व्यवसाय आरंभ किया- हां दो महीने किया और पता चला कि गलत धंधे में हैं, सो बंद कर दिया।
  51. मार्शल आर्ट की क्लास में भाग लिया - खुदा कसम, जब जब ठुकाई हुई तब तब प्रण किया कि मार्शल आर्ट सीखेंगे, लेकिन यह तमन्‍ना आज  तक तो पूरी नहीं हुई है।
  52. रूस गए - जो ऊपर की तरफ है। नहीं।
  53. लंगर/भंडारे में लोगों को खाना परोसा - हां, आनन्‍द आया।
  54. ब्वॉय स्कॉऊट पॉपकार्न अथवा गर्ल स्कॉऊट कुकीज़ बेची - इससे अधिक भी कई काम कर चुका हूं।
  55. समुद्र में व्हेल देखने गए - नहीं लेकिन भूत देखने के लिए गया हूं। ऐसी जगहों पर रातें बिताई है जहां लोग दिन में भी नहीं जाना चाहते।
  56. खामखा बिना वजह किसी ने फूल दिए - हां,
  57. रक्त दान किया - किया लेकिन काम नहीं आया।
  58. नाज़ी कॉन्सनट्रेशन कैम्प देखा - मेरे घर में था, अब बंद हो गया है। आपको भी दिखाता कुछ साल पहले।
  59. खुद का दिया बैंक चैक बाऊंस हुआ - मेरी शक्‍ल ऐसी है कि लोग चैक ही स्‍वीकार नहीं करते।
  60. बचपन के किसी मनपसंद खिलौने को बचा के रखा- नहीं, पहले ही उसका बंटवारा हो गया था। एक कैलकुलेटर है। पर वह बचपन का नहीं टीन एज का है।
  61. राज घाट पर गांधी समाधि देखी - हां देखी, तीन बार, घण्‍टों वहीं बैठा रहा। क्‍योंकि बाहर गर्मी ज्‍यादा थी और वहां सुकून मिल रहा था।
  62. कैवियार (मछली के अंडों का अचार) खाया - शाकाहारी होने का यही नुकसान है कि जयपुर जाकर आमलेट खाना पड़ता है।
  63. रजाई का कवर सिला - हां और भी बहुत कुछ ऐसा किया है। मिट्टी से बर्तन भी मांझे हैं।
  64. चांदनी चौक गए- हां, :) हां
  65. घने जंगल में सैर की- जंगल ? कहां है।
  66. नौकरी से निकाले गए - नहीं, अब तक तो मैं खुद ही छोड़ता रहा हूं। मैं मालिक को मौका ही नहीं देता। :)
  67. हड्डी टूटी - कई बार। मांस भी फटा है और टांके भी आए हैं।
  68. तेज़ रफ़्तार मोटरसाइकल की सवारी करी- एक बार 120 की रफ्तार से अपनी पल्‍सर चला चुका हूं। अब तक की तो यह लिमिट है। अगली बार सर्विसिंग के बाद 130 पर चलाने की कोशिश करूंगा।
  69. अपनी किताब छपवाई - इतना लिख लेता तो कलेक्‍टर नहीं बन जाता। पूरे छात्र जीवन में नोट्स ही नहीं बनाए। अब ब्‍लॉगिंग ने लिखना सिखाया है।
  70. नई नवेली गाड़ी खरीदी - नहीं हमेशा उपहार में ही मिली है। पर मिली नई नवेली।
  71. अखबार में फोटो छपी - कई बार।
  72. नव वर्ष की पूर्व संध्या की मध्यरात्रि किसी अंजान का चुंबन लिया - क्‍यों बताउं।
  73. राष्ट्रपति भवन की सैर करी - हां,
  74. किसी जानवर का शिकार कर खाया - शाकाहारी हूं भाई।
  75. चिकन पॉक्स झेला- हां,
  76. किसी की जान बचाई - ऊपरवाला ही बचाता है। लेकिन मुझे वहम है कि कुछ लोगों की बचा चुका हूं।
  77. जज अथवा जूरी बन निर्णय सुनाया (किसी प्रतियोगिता में या न्यायालय में)- अब तक तो प्रतियोगी ही बना हूं।
  78. किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से मुलाकात करी - कई लोगों से मिला हूं। वे सामान्‍य हाड मांस के पुतले लगते हैं। उन्‍हें देखकर भाग्‍य पर अधिक भरोसा होने लगता है।
  79. बुक क्लब की सदस्यता ली - कई जगह, अभी भी सदस्‍य हूं।
  80. किसी अज़ीज़ को खोया - हां पिंकू को खोया, मेरा कुत्‍ता था, मैं उससे प्‍यार करता हूं।
  81. शिशु का पिता बना - यह ऐसा अनुभव है जिसे बयां नहीं किया जा सकता।
  82. किसी कानूनी मुकदमे में शरीक हुए/रहे - एक मुकदमे का हिस्‍सा तो पिछले सत्‍ताईस साल से हूं
  83. सेल फोन के मालिक हैं/रहे - हां, कॉल कीजिएगा। 09413156400
  84. मधुमक्खी ने डंक मारा- हां, कई बार, लोहे की चाबी से रगड़ा तो दुरुस्‍त हुआ।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

आखातीज के कुछ क्षण








आखातीज पर बीकानेर मे जमकर पतंगबाजी हुई। 
देखिए कुछ तस्‍वीरें। 

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

रिंग रिंग रिंगा- भाग दो

शहर से गांव और पश्चिम से भारत की ओर

मार्केटिंग के लोग अपने क्षेत्र के सर्वाधिक जुमले से हमेशा बचने की कोशिश करते हैं। और यह जुमला है कि मार्केट सेचुरेट हो चुका है। यानि वे अपने मालिकों को बताते हैं कि आपका ब्रांडेड बासी माल यहां और नहीं बिक सकता। लेकिन शीर्ष प्रबंधन कभी यह बात सुनना नहीं चाहता, तो पलटवार के लिए एक और सवाल होता है कि जब और माल नहीं बिक सकता तो लाखों रूपए और इंसेटिव डकारने वाले भारी भरकम स्‍टाफ की क्‍या जरूरत है।

मार्केटिंग प्रोफेशनल्‍स को सवाल और सवाल का जवाब दोनों पता है सो वे इस जुमले से पर्याप्‍त दूरी बनाए रखते हैं और विकल्‍प के रूप में दूसरा पैंतरा फेंकते हैं वह है नया बाजार। यानि बड़े बाजार से ध्‍यान हटाकर छोटे बाजारों का रुख किया जाए। अब ब्रांडेड एसी और एडीडास के शो रूम तहसील स्‍तर पर खुलने लगते हैं। फसल से आया पैसा महंगे ब्रांडों की भेंट चढ़ने लगता है। गांव करै ज्‍यां गैली करे। यानि एक जैसा करता है वैसा ही दूसरा करता  है और अंत में पूरा गांव उसमें लग जाता है। इस तरह मार्केटिंग के लोग शहर से गांव की ओर भागते हैं। नया बाजार ब्रांडेड बासी माल को और कुछ दिन बेच लेता है। मिलें बंद करने का संकट और स्‍टाफ को हटाने का काम कुछ दिन के लिए टल जाता है।

यह है सामान्‍य ज्ञान- अब मुझे याद आ रहा है स्‍लमडॉग का रिंग रिंग रिंगा। यानि भारतीय कन्‍याओं को बचाने के लिए स्‍वयं अमरीका ही आ खड़े होने की कोशिश करेगा। भले ही उसकी हालत अभी कटोरा लेकर हमारे दरवाजे पर आने की है लेकिन आएगा मसीहा बनकर।

पश्चिम की मीडिया ने फर्श से अर्श पर पहुंचे लोगों और उनके संबंधियों के साथ पश्चिम में इस तरह के स्टिंग ऑपरेशन्‍स किए होंगे। लेकिन इस बार भारत आकर इस तरह का स्टिंग ऑपरेशन किया और एक भरे पूरे मुल्‍क की इज्‍जत को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर इस तरह उछाल दिया मानो सोमालिया के गृह युद्ध के बाद का दृश्‍य भारत में बना हुआ हो। कमाल तो तब होगा जब बिके हुए नेतागण देश की समस्‍याओं का समाधान भी पश्चिम के विशेषज्ञों से कराने लगेंगे। तब उन लोगों की पंचायती बढ़ेगी। और तभी हमें महसूस होगी असली आर्थिक और राजनैतिक परतंत्रता।