जिंदगी की रफ्तार अपने तरीके से बढ़ती जा रही है। जिन चीजों को पीछे छोड़ता चल रहा हूं, उससे कहीं अधिक तेजी से नई चीजें सामने आ रही हैं। ऐसे में बहुत कुछ छूट जाने के बावजूद उन्हें मिस करने का समय ही नहीं निकाल पा रहा हूं। दो दोस्त थे, दोनों गुम है। एक जियोग्राफिकल डिस्टेंस पर है तो दूसरा साइकोलॉजिकल। एक विषय था फिलासफी, दुनियादारी ने उसे छुड़ा दिया। एक काम था खबरें लेने का वह समय ने छुड़ा दिया। अब जिस रास्ते पर दौड़ रहा हूं, लग रहा है और भी बहुत कुछ है जो छूट जाएगा। ये छूटना और नया मिलना न तो दुख दे रहा है न खुशी। बस जैसे तरंग पर सवार हूं और किसी अनजाने रास्ते की ओर बढ़ रहा हूं।
एक दोस्त जो बहुत दूर रहता है। कुछ दिन पहले दोस्त को फोन किया। करीब एक साल बाद। उसने आश्चर्य किया कि मैंने कैसे फोन किया। मैंने साफ साफ कहा “कोई दोस्ती वाला कोटेशन पढ़ लिया था फेसबुक पर सो तुम्हारी याद आ गई।” वह हंस दिया। मैं उसे जानता हूं और वह मुझे। फिलहाल दोनों के पास समय नहीं है। हम दोनों ही सिक थर्टीज के शिकार हो रहे हैं। सत्तर साल की कुल जमा उम्र में से आधी जिंदगी कट चुकी है। बाकी बची जिंदगी को संवारने का यह आखिरी मौका लग रहा है। दिमाग की सुनो या दिल की, जो करना है अभी करना है। बाद के लिए कुछ भी नहीं है। कभी साथ बैठकर सोचा करते थे, अभी मस्ती करते हैं, फिर काम करेंगे और चालीस की उम्र में रिटायर होकर बैठ जाएंगे। इस गणित के हिसाब से अभी पांच साल और इंतजार है। मुझे डर है कहीं रिटायरमेंट की उम्र आगे न बढ़ जाए।
एक गुरुजी थे। खूब मारते थे। मन में हमेशा गांठ रही कि गुरुजी ने बिना बात मारा। उन दिनों वे प्राइवेट स्कूल में टीचर हुआ करते थे। उन्हें अपनी जिंदगी से कई तरह के फ्रस्ट्रेशन थे। पिछले दिनों पुराने शहर की एक गली से गुजरते हुए मिल गए। मैं अपनी धुन में था, वे अपनी। मुझे रोककर बात की और माफी मांगने के अंदाज में कहा कि अपनी कमजोर मानसिकता के दौर में मैंने तुम्हारी जबरन पिटाई कर गलत किया। देखें तो बहुत गंभीर बात थी, वे दिल की गहराइयों से बोल रहे थे। इस क्षण के लिए उन्होंने खुद को कितने लंबे समय तक तैयार किया होगा। मुझसे मिलने या मिलने के मौके का इंतजार किया होगा। उन्होंने बातचीत भी शुरू की लेकिन मैं अपने काम की धुन में था, आखिर उन्होंने बिना माहौल बने ही कह दिया, ताकि उनके जी का बोझ हल्का हो जाए। अब सरकारी शिक्षक बनने के बाद जिंदगी थमी हुई है। सो हर बात को सोचने और बार बार विचार करने के लिए समय है। उन्होंने सोचा और कह दिया, मेरी ग्राह्यता कम थी, पर संदेश पहुंच गया। मैंने उनकी बात को हल्के में लिया और बाइक स्टार्ट कर आगे रवाना हो गया। बाद में सोचा पर क्या फायदा?
कुछ लड़कियां हैं। प्यारी प्यारी सी। मेरे ही परिवार की। जब वे बिल्कुल नन्हीं नन्हीं सी थी, तब से मुझे देख रही है। बड़े परिवार की जब भी पार्टी होती तो वे मुझे जबरन हीरो बना देती। बाद में भी उनकी यही इच्छा रही कि पार्टी हो तो मैं हीरो की तरह एंट्री करूं और माहौल में जान डाल दूं। कुछ सालों तक यह स्थिति रही भी। बाद में व्यस्त हो गया। पिछले कुछ सालों में बड़ी पार्टियां हुई। उन बड़ी हो चुकी बालिकाओं को अब भी मुझसे उम्मीद थी, लेकिन मैं व्यस्त हो चुका था। जिंदगी की कई दूसरी उलझने पार्टी से बड़ी हो गई। सो भोज और परिवार के सदस्यों से मिल भर लेने के उद्देश्य से देरी से पहुंच पाया। कुछ घर लौट चुकी थी तो कुछ सो चुकी थी। जो जाग रही थी, उन्होंने उलाहना दिया कि आपका इंतजार किया, हम सब मौज करना चाहते थे, पर यहां कोई नहीं था। पूरी पार्टी थी और कोई नहीं था, यानी मैं नहीं था। मैं हंसकर टाल गया, लेकिन बाद में सोचा कि ओह! मैं ही नहीं था। पहुंचकर भी नहीं था।
सालों पहले डायरी लिखा करता था। उसमें यह भी लिखता कि आज किस किस से मिला। अपने विचार भी सहेजकर रखता था। इन सालों में कई बार विफल प्रयास किए, लेकिन दो या तीन दिन से अधिक डायरी भी नहीं लिख पाया। कुछ पन्ने अधूरे से अब भी बिखरे हुए दिख जाते हैं। हर बार नई डायरी होती है। पुरानी खाली डायरियों के अधलिखे पन्ने मिल भी जाते हैं तो उन्हें फाड़कर रख लेता हूं, कुछ दिन संभाले रखता हूं फिर कहीं उड़कर चले जाते हैं... पुरानी यादों की तरह...
कुछ दोस्त हैं, कुछ व्यवसायी है, कुछ हमसफर रहे हैं, तो कुछ अब भी पास पास चल रहे हैं, कुछ परिवार के सदस्य हैं, कुछ पुराने तो कुछ नए मोहल्ले के लोग हैं, कुछ कॉलेज के तो कुछ स्कूली दिनों के दोस्त हैं, जानकार हैं, मित्र हैं, कुछ भला बुरा चाहने वाले भी हैं। अब तो एक बार में याद भी नहीं आते...
जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही है, सोचने भर की फुरसत भी नसीब नहीं हो रही। किसे भूलूं किसे याद रखूं...