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रविवार, 24 जून 2012

क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसमें बहुत गरल हो...

जोशीजी, ध्‍यान रखना
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसमें बहुत गरल हो, उसका क्‍या, जो दंतहीन, विषहीन विनीत सरल हो...
एक साथी स्‍वतंत्र पत्रकार ने मुझे उस समय यह बात कही जब मुझे अपने संस्‍थान में डेस्‍क से उठाकर पूरी तरह रिपोर्टर बना दिया गया था और कुछ बड़े विभाग मुझे रिपोर्टिंग के लिए सौंपे गए थे। इनमें राजस्‍थान का शिक्षा मुख्‍यालय यानी शिक्षा निदेशालय भी शामिल था। मुझे इस तथ्‍य को समझने में अधिक वक्‍त भी नहीं लगा। मेरे जिस साथी का बाहर तबादला हुआ था, वे शिक्षा विभाग की सालों तक रिपोर्टिंग करते रहे थे, शायद दस साल से वे इस विभाग से जुड़े थे। ऐसे में निदेशालय ने नए रिपोर्टर को एक जल्‍दी से स्‍वीकार नहीं किया। मेरा संस्‍थान बड़ा था और रसूखदार भी, लेकिन न मैं उस समय इतना प्रभाव रखता था, न मेरा भय। कई दिन तक निदेशालय में एक अनुभाग से दूसरे अनुभाग तक चक्‍कर लगाता रहा। मंत्रालयिक कर्मचारियों के नेता हो या शिक्षक नेता, मुझसे मीठी मीठी बातें तो करते, लेकिन खबर नहीं देते। मैं परेशान, पूरा दिन निदेशालय के चक्‍कर काटकर शाम को प्रेस लौटता को संपादक की झिड़कियां सुनने को और मिलती। फिर मुझे मिले एक प्रशासनिक अधिकारी, मुझे परेशान देखकर ही उन्‍होंने माजरा समझ लिया। पूछा कितनी खबरें निकाली है अब तक, मैं खिसियाया, बोला अब तक तो प्रतिस्‍पर्द्धी से पिट ही रहा हूं। उन्‍होंने कुछ ऐसी ही बात दोहराई कि पीटोगे नहीं तो पिटोगे। मैंने कहा अपने ही लोग हैं, अच्‍छे लोग हैं पीटने से क्‍या होगा, खबर है ही नहीं उनके पास। तो अधिकारी महोदय ने कहा कि दूसरा अखबार यहां आकर खबर पैदा थोड़े ही करता है।
यह बात मुझे भी जंच गई। मैंने अधिकारी महोदय से ही पूछा कि कैसे पीटें। तो एक अभिभावक की तरह उन्‍होंने समझाया। जो बात बताई वह समझ में भी आ गई। दो दिन बाद मैंने एक खबर लगाई।
“यही लगे यहीं से रिटायर होंगे”
शिक्षा निदेशालय की स्थिति के बारे में यहीं के एक कर्मचारी ने कभी कहा कि ये तो करणी माता के काबा हैं। देशनोक की करणी माता के बारे में प्रसिद्ध है कि चारण जाति के लोग मानव देह त्‍यागकर करणी माता के काबे (चूहे) बन जाते हैं और काबा शरीर छोड़ने के बाद चारण बनते हैं। कमोबेश यही स्थिति निदेशालय में भी है। सचिवालय की तरह यहां क्‍लोज कैडर नहीं होने के बावजूद यहां एक बार लगा कर्मचारी कभी फील्‍ड में नहीं जाता। अस्‍सी प्रतिशत मामलों में ऐसा ही होता है। मेरी खबर में यही दिया गया था कि क्‍लोज कैडर नहीं होने के बावजूद कई कर्मचारी ऐसे हैं जो तीस तीस साल से यही बैठे हैं। अधिक से अधिक उनका अनुभाग ही बदल रहा है।
खबर ने जिस तेजी से असर दिखाया, वह मुझे हैरान करने वाला था। अगले दिन निदेशालय में पहुंचने के साथ ही कर्मचारी और शिक्षक नेता मुझे बुला बुलाकर बात करने लगे। उनके तयशुदा ठिकानों का एक ही दिन में दर्शन कर लिया। पहले तो मुझे झिड़का कि ऐसी क्‍या खबरें लगाते हो। फिर प्‍यार से पूछा कि यह खबर किसने बताई। मैं टाल गया तो समझ गए कि मसाला दिए बिना यह छोरा हमारे ऊपर ही हमला कर देगा। फिर इधर-उधर की खबरें निकलने लगी। किसी एक समूह ने दूसरे की तो तीसरे ने चौथे की खबरें बताई। पहले से चल  रही धड़ेबंदी भी एक ही दिन में टूट गई। दोनों प्रमुख अखबारों के खबरी मुझे खबरें दे रहे थे। शाम साढ़े चार बजे तक तो मैं प्रेस पहुंच गया और तीन खबरें ठोंक दी। रात तक फोन आते रहे। आखिर रात दस बजे तक मैंने कुल जमा सात खबरें दी और तीन प्रेस नोट सबमिट किए।
उस एक दिन के उदाहरण से मैं समझ गया कि प्रेम से बात करना बेकार है। अब तो हाथ में जैसे छड़ी ही उठा ली। किसी एक की खबर का कोई सूत्र भी हाथ में होता तो दस लोगों के बीच में उसकी बात करना शुरू करता। संबंधित अधिकारी या कर्मचारी मुझे रोकता और बाद में कोने में ले जाकर पूरी बात समझाता। इसी दौरान मेरे सोर्सेज भी तेजी से बने। कुछ दिन में तो मैं खबरों को क्रॉस चैक तक करने लगा। पुराने लोगों को बनाया तिलस्‍म टूट चुका था और नए लोग पूरी तरह मेरे लोग थे। चूंकि मैंने खबर लेने के लिए किसी प्रकार का वादा किसी से नहीं किया था, इसलिए कहीं स्‍पैल बाउंड भी नहीं हुआ। कर्मचारी और शिक्षक नेताओं के लिए यह सबसे कठिन बात थी। अपनी मर्जी की खबरें छपवाने के आदी नेताओं को सबसे अधिक पीड़ा हुई। उन्‍होंने कई तरह से मुझे घेरने की कोशिश की, लेकिन मेरे हाथ तब तक बहुत मजबूत छड़ी आ चुकी थी। या तो खबर बताओ, वरना तुम्‍हारी फंसी हुई खबर छाप देते हैं। डेढ़ साल के दौरान मैंने जो चाहा वो छापा। जो नहीं जंचा उसे छापने से साफ इनकार कर दिया। इसका सबसे ज्‍वलंत उदाहरण रहा स्‍कूलों के एकीकरण का। राजस्‍थान सरकार ने निर्णय किया कि जिन स्‍कूलों में अधिक शिक्षक और कम छात्र हैं उन्‍हें करीबी स्‍कूलों में मर्ज कर दिया जाए। शहर में कई स्‍कूल ऐसे थे, जिनमें शिक्षक तो चौदह से बीस तक थे, लेकिन छात्रों की संख्‍या दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंची थी। इस निर्णय से शहरी क्षेत्र में सालों से जमे शिक्षकों पर तगड़ी ग़ाज गिरनी तय थी। सो उन्‍होंने आंदोलन शुरू कर दिया। शिक्षक नेताओं ने मुझसे संपर्क किया और आंदोलन के पक्ष में सॉलिड खबरें डालने के लिए कहा। मैंने साफ इनकार कर दिया। संसाधनों के समुचित उपयोग की एकमात्र सरकारी योजना को मैं धक्‍का कैसे पहुंचा सकता था। एक शिक्षक नेता ने अधिक जोर दिया तो मैंने कहा कि आप चौदह शिक्षक और छह छात्रों वाले स्‍कूल का औचित्‍य सही सिद्ध करके बात दो, मैं खबरें छाप दूंगा। खबरें नहीं आई तो आंदोलन ने भी एक सप्‍ताह के भीतर दम तोड़ दिया।
इन दिनों देख रहा हूं कि सरकारी आदेशों और सरकारी प्रेसनोट का पत्रकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे में किस आधार पर पत्रकार डंडा उठाएंगे और किसे मारेंगे। यह स्थिति अखबारों को इस स्‍तर तक भी उतार सकती है कि वे क्षमा करने लायक भी न बचें...

रविवार, 4 सितंबर 2011

गुरु के बारे में... कुछ

गुरु, शिक्षक, पथ प्रदर्शक और ऐसे ही सैकड़ों नाम उस इंसान को दिए गए हैं जो हमारी जिंदगी का मार्ग प्रशस्‍त करता है। एक व्‍यक्ति के लिए उसे अपना गुरु मिल जाने से बेहतर और कोई नहीं है।

vyasaमैं पहले भी एक बार उल्‍लेख कर चुका हूं, लेकिन शिक्षक दिवस के उपलक्ष्‍य में एक बार फिर उन गुरुओं का स्‍मरण करते हुए मैं दोहराना चाहूंगा.. हालांकि जिंदगी का शुरूआती ज्ञान देने वाली माता होती है, और वही हमारी प्रथम शिक्षक होती है, फिर भी सामाजिक जीवन के लिए शिक्षा देने के लिहाज से गुरु चार प्रकार के होते हैं..

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अध्‍यापक: जो हमें शिक्षा का आरम्भिक ज्ञान देते हैं। ये शिक्षक क, ख, ग, घ, ड़ या ए, बी, सी, डी जैसे अक्षर ज्ञान, पढ़ने का तरीका और ऐसे ही शुरूआती ज्ञान से अवगत कराते हैं। आज के दौर में ऐसे शिक्षकों को प्राइमरी स्‍कूल टीचर कहा जाता है। नर्सरी से आठवीं कक्षा तक हम ऐसा ही शुरूआती ज्ञान प्राप्‍त करते हैं।

श्रोत्रिय : हमें आगामी जीवन में काम आने वाले विशिष्‍ट विषयों के बारे में विस्‍तार से किताबी जानकारी देते हैं। अब तक गुरुओं और ऋषियों द्वारा संचित ज्ञान श्रोत्रिय अपने शिष्‍यों पहुंचाते हैं। आज के दौर में माध्‍यमिक, उच्‍च माध्‍यमिक, कॉलेज और यूनिवर्सिटी स्‍तर के शिक्षकों को श्रोतिय की श्रेणी में रखा जा सकता है। अब अंतर इतना है कि ऋषियों द्वारा अर्जित ज्ञान छात्रों तक पहुंचाने के बजाय बोर्ड और यूनिवर्सिटी द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम छात्रों तक पहुंचाने का उपक्रम होता है।

उपाध्‍याय : हमें अर्जित किए गए किताबी ज्ञान को दैनिक जीवन में उपयोग की विधियों के बारे में बताते हैं। वास्‍तव में किताबी ज्ञान और वास्‍तविक जिंदगी में कुछ अंतर होता है। समय के साथ यह अंतर भी बढ़ता जाता है। इस अंतर को समझाने और ज्ञान के व्‍यवहारिक उपयोग के लिए उपाध्‍याय ही शिष्‍यों को अपडेट करते हैं। आज के दौर में साइंटिस्‍ट, मैनेजमेंट गुरु और कुछ विश्‍वविद्यालयी शिक्षक निजी तौर यह प्रयास करते हैं, वरना इंजीनियरिंग और शिक्षा की दूसरी फैकल्‍टी से निकल रहे छात्र इंडस्‍ट्री के लिए उतने उपयोगी नहीं सिद्ध हो पा रहे हैं, क्‍योंकि वर्तमान शिक्षा व्‍यवस्‍था में उपाध्‍याय की उपादेयता करीब करीब समाप्‍त बता दी गई है।

आचार्य : शिक्षकों की शृंखला में यह आखिरी कड़ी है। पर मजे की बात यह है कि ये शिक्षक अपने शिष्‍यों को कुछ भी नहीं सिखाते हैं। शिष्‍य अपने आचार्य के साथ ही रहता है। आचार्य का आचरण ही शिष्‍य के लिए शिक्षा होता है। आचार्य के आचरण को सीख लेने के बाद शिष्‍य पारंगत हो जाता है। आज के दौर में आचार्य नहीं है। शिक्षक खुद निर्णय करें कि वे आचार्य की पदवी पर बैठने के कितने अधिकारी हैं।

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हालांकि शिक्षक दिवस शिक्षकों का सम्‍मान किए जाने का दिन है, लेकिन शिक्षकों के क्रूर विश्‍लेषण का दायित्‍व भी स्‍वयं शिक्षकों का है। इस आत्‍मविश्‍लेषण से वे अगर बचने का प्रयास करेंगे तो न केवल स्‍वयं का नुकसान करेंगे, बल्कि राष्‍ट्र को अधिक नुकसान पहुंचाएंगे। क्‍यों न आज के दिन मेरी पोस्‍ट पर आने वाले शिक्षक अपना आत्‍मविश्‍लेषण करें। मैं खुद भी एक छात्र का शिक्षक हूं, सो मैं भी इसी प्रक्रिया से गुजर रहा हूं...

शब्‍दकोष में शिक्षक 

हरदेव बाहरी बताते हैं - शिक्षक- सं (पु.) विद्या या ज्ञान सिखाने वाला व्‍यक्ति (जैसे राजनीतिक शिक्षक, कला शिक्षक) 2 अध्‍यापक 3 गुरु

विकीपीडिया के अनुसार - A teacher (or, in the US, educator) is a person who provides education for pupils (children) and students (adults). The role of teacher is often formal and ongoing, carried out at a school or other place of formal education. In many countries, a person who wishes to become a teacher must first obtainspecified professional qualifications or credentials from a university or college. These professional qualifications may include the study of pedagogy, the science of teaching. Teachers, like other professionals, may have to continue their education after they qualify, a process known as continuing professional development. Teachers may use a lesson plan to facilitate student learning, providing a course of study which is called the curriculum. A teacher's role may vary among cultures. Teachers may provide instruction in literacy and numeracy, craftsmanship or vocational training, the arts,religion, civics, community roles, or life skills. A teacher who facilitates education for an individual may also be described as a personal tutor, or, largely historically, a governess. In some countries, formal education can take place through home schooling. Informal learning may be assisted by a teacher occupying a transient or ongoing role, such as a family member, or by anyone with knowledge or skills in the wider community setting. Religious and spiritual teachers, such as gurus, mullahs, rabbis, pastors/youth pastors and lamas, may teach religious texts such as the Quran, Torahor Bible.

मुफ्त डिक्‍शनरी कहती है - One who teaches, especially one hired to teach. (Business / Professions) a person whose occupation is teaching others, esp children. tuition - First meant taking care of something, then teaching or instruction, especially for a fee.