यहां बीकानेर में पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर बैठकर एक भारतीय दिल्ली और शिमला में हो रही उठापटक के क्या मायने देख सकता है। मुझे सोचता हूं कि सिंधु नदी के इस पास सुदूर दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और उत्तर में हिमालय के बीच गोथळी की तरह तीन दिशाओं से सुरक्षित है। इस भूभाग को हमेशा पश्चिमी कोने से आए विदेशियों का इंतजार रहा है। भले ही वे हमें अच्छे लगें हों या नहीं लेकिन उनका आना और हमें प्रभावित करने का सिलसिला अब भी जारी है और आगे भी जारी रहना चाहिए। वरना हम नए विचारों के अभाव में सड़ने लगेंगे।
पश्चिम और पश्चिमी लोगों के प्रति भारतीयों का रैवेया हमेशा स्वागत वाला रहा है। इतिहास बताता है कि कई बार पश्चिमी आक्रांताओं ने भारत को लूटा लेकिन भारत ने कभी इस राह में चीन जैसी दीवार बनाने की नहीं सोची। क्योंकि नए विचार और क्रांतियां भी इधर से ही आ रही थी। सतत क्रांति के दौर से गुजर रहे भारत को लगातार ताजी बयार की जरूरत महसूस होती है। कभी-कभार ऐसा भी होता है कि जड़ मानसिकता वाले लोग इस बयार और ताजे विचारों का विरोध करने लगते हैं। मुझे लगता है यही द्वंद्व है।
जिन्ना को लेकर हिन्दू उग्रवादी संगठन का अपने ही नेता के प्रति रेवैया यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या वास्तव में सीमा हमें इस कदर काटकर रख देती है कि हम उस पार की अच्छाई या बुराई या तटस्थ विचार भी बयान नहीं कर सकते। वह भी ऐसे संगठन में जो राष्ट्रीय होने का दंभ भरता है। शायद सीमा पर रहने वाले बहुत से लोग जमीन और इंसानों से घृणा नहीं भी करते हैं। घृणा के लायक बस गंदी राजनीति ही हो सकती है जो सीमाओं को बांधे रखती है। वरना तो मीलों तक पसरे रेगिस्तान में कभी भी जामों की अदला-बदली भी हो सकती है। भले ही जमीन पर बाड़ खींच दी गई हो, लेकिन आंखें देखती हैं कि हम भी नहाते-धोते हैं, हंसी मजाक करते हैं और वे भी। हमारे पास भी पशु और धान हैं और उनके पास भी। वे भी उतने ही जिंदा और ईश्वर के करीब हैं जितने हम। विदेश मंत्री रहने के दौरान और विदेशी जमीन पर स्थापित कंपनियों में भारतीयों और पाकिस्तानी नागरिकों को एक थाली में खाते देख जसवंत सिंह ने भी पार्टी और संघ की लघु सोच पर विचार किया होगा। यह इसलिए हुआ होगा क्योंकि नागपुर में उनका ब्रेनवाश नहीं किया जा सका था। अपनी अधिकांश उम्र छद्म राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद में झोंक देने के बाद जब इस व्यक्ति ने अपने विचार व्यक्त किए तो मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए इक्का-दुक्का मुस्लिम लीडर शामिल कर चुकी भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
विभाजन से पहले और बाद में बहुत सा हिन्दुतान बचा रह जाता है। हालांकि अब उसका कुछ भाग पाकिस्तान के पास है लेकिन यादों का क्या करें?
विभाजन की त्रासदी को जिन लोगों ने झेला हैं उनमें से कुछ को मैं भी जानता हूं। सीमा से बिल्कुल सटे बीकानेर में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो सिंध में अपना चलता कारोबार छोड़कर यहां आ बसे। जो कुछ साथ लाए थे वह भी जल्द ही खत्म हो गया। उन लोगों ने शून्य से शुरूआत की और अब तक अच्छी स्थिति में आ चुके हैं। विभाजन का दर्द कम भले ही न हुआ हो लेकिन कुछ धुंधला पड़ने लगा है। वह अब रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित नहीं करता। वे लोग सिंध से आए तो सिंधी भाषा और संस्कृति भी अपने साथ लेते आए। कुछ झूलेलाल को मानने वाले हैं तो कुछ वल्लभाचार्य के वैष्णव हैं। पिछले दिनों सिंधी समाज के बिल्कुल करीब जाने का अवसर मिला। तो पता चला कि पुष्करणा भी सिंधी ही हैं। यानि मैं भी सिंध से ही आया हुआ हूं। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। लेकिन सिंधी समाज के लोग जिनसे मैं बात कर रहा था, यह बात इतनी सहज होकर कह रहे थे कि बात मेरी समझ में नहीं आई। तो एक पढ़े लिखे सज्जन ने बताया कि अरे सांई, हम तो पचास-साठ साल पहले ही आए हैं, तुम तीन-चार सौ साल पहले आ गए थे। मैं इंटरव्यू कर रहा था और कई लोग बैठे थे सो सोचने का समय नहीं था। मैंने बात वहीं खत्म कर दी। घर आया तो यही बात दिमाग में घूम रही थी। पुष्करणा ब्राह्मणों में भी लालवाणी, सत्याणी और देवाणी की तरह कीकाणी, लालाणी और केशवाणी जैसी जातियां होती हैं। तो मेरे लिए यह स्वीकार करना अधिक आसान हो गया कि मैं भी इन सिंधियों की तरह इस भारत भूमि पर सिंध प्रांत से आया बंदा हूं। बस अंतर इतना है कि मैं तीन-चार सौ साल पहले आ गया था। यानि भारत ने इतने वर्ष पहले ही मुझे स्वीकार कर लिया था। विभाजन तो बहुत बाद की घटना है। विभाजन के बाद पाकिस्तान बना और अब तो सिंध प्रांत से आने वाली हवा को भी घृणित समझा जाने लगा है। अगर वह हमारा, कम से कम पुष्करणा समाज का उद्गम स्थल है तो मैं तो उस स्थान से घृणा नहीं कर सकता। दूसरे लोगों के लिए भी केवल यही कारण नहीं हो सकता घृणा करने का, कि वह उनका उद्गम स्थल नहीं है। इसी आधार पर मैं भी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश से घृणा नहीं कर सकता। एक हिन्दु ब्राह्मण होने के बावजूद सिंध से अपना कुछ जुड़ाव महसूस करता हूं और सोचता हूं, क्या उधर भी कुछ सोचने विचारने और देश व संप्रदाय की सीमाओं को ताक पर रखने वाले लोग होंगे।
इसका जवाब मिला अपने मामा से। वे एक दशक से अधिक लम्बे समय तक डिफेंस रिसर्च एण्ड डवलपमेंटल ऑर्गनाइजेशन की दिल्ली लैब में रहे। पिछले दिनों निदेशक के पद से सेवानिवृत्त होकर बीकानेर लौट आए हैं। डीआरडीओ में काम करने से पहले वे बीस साल तक अमरीका में थे। बाद में कलाम के बुलावे पर भारत लौटे। बातचीत में एक बार उन्होंने बताया कि उनके दो दोस्त थे और एक प्रतिद्वंदी। दोस्तों में एक अमरीकी था और एक पाकिस्तानी। प्रतिद्वंदी कश्मीरी था। वह अपने काम में इतना अधिक दक्ष था कि हमेशा कड़ी चुनौती दिए रखता था। काम को पूरा करने में अमरीकी और पाकिस्तानी दोस्त हमेशा उनकी मदद करते थे। मेरे लिए उन दिनों यह सोचना भी टेढ़ा काम था कि एक पाकिस्तानी उनका खास दोस्त है। मैं कौतुहल से पूछता तो वे हंसते। कहते वहां सब एक हो जाते हैं। देशों की सीमाएं संस्थानों में लुप्त हो जाती हैं। तभी अमरीका इतनी तरक्की कर पा रहा है। क्या भारत भी ऐसा कर सकता है। या ऐसा ही चलता रहेगा कि उन्मुक्त विचारों का गला घोंटने के लिए कुछ संगठन प्रतिगामी क्रियाओं में ही व्यस्त रहेंगे।
कभी सोचता हूं भारतीय मतदाता भी इसमें बराबर के दोषी हैं...