हरीश भादाणी इस दुनिया में नहीं रहे। वे शायद स्वर्ग में नहीं जाएंगे। क्योंकि जीते जी जो ईश्वर के नाम पर बनाए हर सिस्टम का विरोध करते रहे वे मरने के बाद भी संभव है अपनी इस कोशिश को जारी रखें। केवल इसी कारण नहीं बल्कि आम आदमी की तकलीफ और दर्द को अपने सस्वर काव्य में दिखाने वाले हरीशजी को उनके पाठकों ने ही जनकवि बना दिया। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से एक इस कवि ने पूर्व स्थापित सभी मान्यताओं, भ्रांतियों और परम्पराओं को चुनौती दी और बहुत हद तक सफल भी रहे। अब अगर उसी भगवान के दूत उन्हें स्वर्ग में प्रवेश का न्यौता भी देंगे तो वे मना कर देंगे और एक नया स्वर्ग बनाएंगे। उनका वृहद् परिवार जिसमें उनके चाहने वालों की संख्या ही अधिक है, उस स्वर्ग में जाने के लिए लालायित रहेगा। खैर, बीकानेर के इस सपूत ने मरने के बाद भी बीकानेर नहीं छोड़ा। अपनी देह यहीं के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज को दान कर दी। यह भी स्थापित परम्परा को तोड़ने का ही जज्बा है। उन्हें मैं शब्दों में श्रद्धांजलि नहीं दे सकता सो उनकी कविता को यहां पेश कर रहा हूं जिसे उन्होंने तकरीबन हर मंच पर गाया फिर भी लोगों की प्यास बनी रही। उनके स्वर तो नहीं है लेकिन शब्द पेश करने की कोशिश कर रहा हूं।
रोटी नाम सत है
खाए ते मुगत है
ऐरावत पर इंद्र बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलियां फैलाए लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूंटनी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव
भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए ते मुगत है
बोले खाली पेट की
क्रोड़-क्रोड़ कुण्डियां
खाकी वर्दी वाले भोपे
भरे हैं बन्दूकियां
पाखण्ड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होम दे
राज के विधाता सुण
तेरे ही निमत्त है
बाजरी के पिण्ड और
दाल की वैतरणी
थाळी में परोस ले
हथाळी में परोस ले
दाता के हाथ
मरोड़कर परोस ले
भूख के धरमराज
यही तेरा व्रत है
रोटी नाम सत है
खाए ते मुगत है
- जनकवि हरीश भादाणी