शुरू से मैं यह जानता नहीं था या कह दूं कि मानता नहीं था कि मानसिक स्तरों में उतार चढ़ाव होता है और कई बार यह खतरनाक भी हो सकता है। बहुत छोटा था तब मुझे कॉमिक्स पढ़ते देख मेरे पड़नानाजी स्वर्गीय डॉ. माधोदासजी व्यास मुझे टोका करते थे। वे कहते कि एक बार हल्के साहित्य में उतर गए तो कभी गंभीर साहित्य पढ़ नहीं पाओगे। मुझे कॉमिक्स अच्छी लगती थी। सो उनकी बात थोड़ी कम पचती थी। यह स्वाभाविक भी था। पर इसे मैंने एक चैलेंज की तरह लिया और उन्हीं दिनों नागराज और सुपर कमाण्डो ध्रुव के साथ प्रेमचंद को भी पढ़ा। सच कहूं रोलर कोस्टर राइड थी। एक तरफ आभासी दुनिया थी और दूसरी तरफ जमीनी सच्चाई। नागराज अपने हाथों से निकले सापों से परदे खड़े कर रहा था और प्रेमचंद का परदा बिल्कुल गल गया था, जिसके पीछे अधनंगी सच्चाई खड़ी थी। शायद इन्हीं दिनों में मेरा एक ही समय में अलग अलग मानसिक स्तरों में विचरण का क्रम शुरू हो गया था।
लाइक डिजाल्व लाइक की तर्ज पर मुझे मिला आशीष। वह जीनियस होने का भ्रम पाले जबरदस्ती मानसिक स्तरों का विचरण कर रहा था। भले ही मेरी स्थिति भी जबरदस्ती वाली ही थी लेकिन मेरे पास इसके लिए सुविधाएं और साधन मुहैया थे। सबकुछ घर पर ही और आशीष इनके लिए भटक रहा था। हम दोस्त थे, बाद में इस विचरण के साथी भी बन गए। हमारे कई तरह के प्रयासों के बावजूद निजता बरकरार रही। बाद में एक दिन आशीष ने इक्कीसिया गणेश मंदिर के पास बने खेल मैदान की हमारी बैठक में कहा कि ये मानसिक स्तरों का विचरण खतरनाक हो सकता है। मैं बेफिक्र था। मैंने ध्यान ही नहीं दिया।
इसी दौर में मैं मानसिक रोगों के बारे में पढ़ना शुरू कर चुका था। मेडिकल स्टूडेंट समझ सकते हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूं, कि रोगों को पढ़ने के साथ मैंने उनमें से कई रोगों को महसूस करने की कोशिश शुरू कर दी। या कहें वे खुद को महसूस कराने लगे। वास्तव में यह स्थिति बहुत खतरनाक होती है। मेरा सबसे पसंदीदा विषय स्कीजोफ्रीनिया है। जब मैंने उसे पढ़ना शुरू किया तो रोग को समझना ही टेढ़ी खीर लगा। जैकाल हाइड वाली कहानी से मिलता जुलता यह रोग है। यानि भेड़ की खाल में छिपा भेडि़या। ये रोगी वैसे नहीं होते कि अच्छी सामाजिक छवि हो और नौकरानी का बलात्कार करे। बल्कि ये रोगी सामान्य दिखने वाले ऐसे लोग होते हैं जो लगातार मर रहे होते हैं। अब मरना क्या है इसे समझना भी बहुत मुश्किल है। सही कहूं तो असंभव है। लेकिन मरने के करीब होने की कल्पना करना उससे कुछ आसान है। यहां मैं कह रहा हूं कि कुछ आसान है यानि असंभव से कुछ आसान। ठीक है उस स्थिति को महसूस करने के बाद अगली स्टेज नहीं आ सकती क्योंकि वह लगातार चलने वाला प्रोसेस है। ऐसे में आप नीयर डेढ एक्पीरियंस की कल्पना तो कर सकते हैं लेकिन उसके प्रभावों की नहीं। उसके प्रभाव तक एक बार पहुंच भी गए तो उससे अगली स्टेज मिलना तो असंभव है, बिना रोग हुए। फिर भी मैंने लम्बे काल के लिए उस स्थिति को बनाए रखने की कोशिश की तो कुछ ऐसे अनुभव होने शुरू हुए जिसमें शक होने लगता है। यहां मैं एक बार सावधान हुआ और खुद को दूसरे कामों में मोड़कर बाहर आ गया। लेकिन इस प्रयास ने मुझे समझने का सूत्र थमा दिया। अब मैं इस रोगी को समझ सकता था। इस दौर के बाद मुझे दो बार शक हुआ कि कहीं मैं भी इसका रोगी तो नहीं हूं। सो यहां थोड़े अंतराल में दो अलग अलग मानसिक रोग विशेषज्ञों को दिखाकर आया। दोनों में मुझे क्लीन चिट दी। बाद वाले ने मुझे पंद्रह दिन की एंटी डिप्रेसेंट लिख दी। वो मैंने नहीं ली और घर आकर प्राणायाम में जुट गया। कुछ दिन में वह अवस्था खत्म हो गई तो मैंने दोबार मुड़कर देखा। अब मैं मुस्कुरा सकता था।
यह सब मुझे याद आया समय की टिप्पणी से। वे छद्म और अंध विश्वास में अंतर नहीं कर पाए। यह एक प्रकार के माइंड सेटअप की समस्या है। वे खुद को क्लिष्ट शब्दों और तार्किक ज्ञानयोग में झोंक रहे हैं। ऐसे में जब अंधविश्वास की बात आती है तो वे उसे आमतौर पर बताया जाने वाला ईश्वरीय विश्वास मान रहे हैं। यही छद्म विश्वास भी है। उनकी उलझाहट में मानसिक स्तर में विचरण नहीं कर पाने की विवशता दिखाई देती है। उनके ब्लॉग पर जाकर मैंने दो बार आगाह भी किया लेकिन वे अपने इस विश्वास के साथ बने हुए हैं कि दर्शन ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन मैं अब भी उन्हें यही सलाह देना चाहता हूं कि वे शब्दों की क्लिष्टता और ज्ञान की तार्किकता के परे आकर आम बोलचाल की भाषा में दर्शन की बात करें। यह लोगों की समझ में भी जल्दी आएगा और वे खुद भी स्वाभाविक मानसिक अवस्था में रह पाएंगे। वैसे उनका ब्लॉग है और उनका दिमाग... वे जैसा उचित समझे करें।
उनके लिए स्पष्ट कर रहा हूं कि एक सामान्य अंधविश्वासी बिना जाने यकीन करता है कि ईश्वर है और बताए गए रूप में है। जबकि एक छद्म विश्वासी उस ईश्वर को अपने अंदाज में देखता है भोगता है और उसका दिमाग उसे जस्टिफाई भी करता है। यानि अंध से अधिक पक्का छद्म विश्वास होता है। यही बात मैं स्पष्ट करने की कोशिश कर रहा था।
अगली पोस्ट ब्लॉगिंग में संप्रेषणीय आग्रहता पर होगी... यह एक रोचक बहस का हिस्सा थी और अब इसे रोजाना देख रहा हूं....