हालांकि जन लोकपाल बिल आने और उसके जमीनी तौर पर लागू होने में अभी बहुत समय बाकी है, लेकिन आम आदमी के चेहरे पर संतोष का भाव अभी से दिखाई देने लगा है। क्योंकि अन्ना उसके साथ है, अन्ना मेरे साथ है। जो व्यक्ति आज मुझसे जबरन भ्रष्टाचार के पैसे ले रहा है, कल वह मेरे समक्ष नतमस्तक खड़ा होगा और मैं फिर से मिमियाने के बजाय लोकतंत्र की पुख्ता जमीन पर सीना तानकर खड़ा होउंगा। मुझे अन्ना पर गर्व है... लेकिन....
कुछ सवाल पिछले कुछ दिन से मुझे परेशान करने लगे हैं। अखबारों, समाचार चैनलों और सूचना के अन्य माध्यमों के इतर नेट पर मैंने कुछ सवाल देखे, वह विचलित कर देने वाले लगते हैं, हालांकि अब भी मैं अन्ना और उनकी टीम को संदेह के घेरे में नहीं लेता, पर कहीं भविष्य में यह नूरा कुश्ती सिद्ध हुई तो सवा अरब भारतियों के साथ मैं भी गहरे अवसाद में चला जाउंगा। हो सकता है खुद ही भ्रष्टाचार के नए कीर्तीमान स्थापित करने लगूं। मेरा ईश्वर मुझे इसकी अनुमति नहीं देता, पर गीता में कृष्ण यह कहकर कि 'विवेक के अनुसार जो सही है वही सही है' मुझे भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाने का विवेक दे देते हैं।
कुछ सवाल जिन पर अन्ना और उनकी टीम को जवाब देना ही चाहिए। हालांकि पूर्व में इस बारे में नेट पर कई बार चर्चा हो चुकी है, लेकिन जिन सवालों ने मेरी श्रद्धा को विचलित किया उन पर तो मुझे चर्चा करनी ही होगी। ये सवाल हैं....
- रेलवे एक्सीडेंट से लेकर क्रिकेट मैच के स्कोर तक के बीच में विज्ञापन दिखाने वाली मीडिया ने बिना कमर्शियल विज्ञापनों के अन्ना के आंदोलन का निर्बाध प्रसारण किया... मीडिया कंपनियों ने इस घाटे को कैसे सहन किया?
- विशेषाधिकार हनन का नोटिस देने वाले सांसद को दिल्ली बम विस्फोट के बाद अचनाक ब्रह्मज्ञान हुआ और उसने विस्फोट के अगले ही दिन अपना प्रस्ताव वापस ले लिया।
- खुद के संपत्ति नहीं होने और सारी संपत्ति अपने ही ट्रस्ट को दान करने वाले अरविन्द केजरीवाल इनकम टैक्स विभाग से छूट मांग रहे हैं, और साथ में झूठ भी बोल रहे हैं। बाद में वे अपनी बात से मुकर जाते हैं, और कहते हैं कि इस प्रकरण का आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है। मैं भी यही मानता हूं, लेकिन इसका सीधा संबंध उस व्यक्ति के चरित्र से है, जो आंदोलन के प्रणेताओं में से एक होने का मान रखता है।
- अन्ना को अनशन करने के लिए जेपी पार्क दिया गया था, वहां उन्हें अनशन नहीं करने दिया गया और तिहाड़ जेल भेज दिया गया (कानून का हवाला देकर)। बाद में कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अन्ना तीन दिन बिना किसी नियम और कानून के तिहाड़ जेल के अतिथि बने रहे और बाहर लोग और मीडिया डटे रहे। संवेदनशील इलाके को खाली कराने के लिए न राज्य सरकार ने कुछ किया न केन्द्र ने।
- भ्रष्टाचार के मुद्दे का जातिवाद से कोई लेना देना नहीं है। इसके बावजूद आंदोलन में ट्विस्ट लाने के लिए कुल जमा 35 मुसलमानों को आंदोलन स्थल पर लाया गया और नमाज पढ़वाई गई। क्या इसकी जरूरत थी। अगर थी भी तो उन्हें मंच के समक्ष नमाज पढ़वाने का नाटक क्यों किया गया।
- गुजराज के लोकायुक्त पद पर नियुक्त किए गए सेवानिवृत्त जज के नैतिक आचरण पर सालों पहले से कई सवाल उठते रहे हैं। यह व्यक्ति कांग्रेस के मीडिया प्रकोष्ठ में एक बाबू की हैसियत से दस साल से अधिक समय तक काम करता रहा, फिर राजनैतिक हैसियत का लाभ उठाकर उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना और अब उसे लोकायुक्त बनाया गया है। केवल पैसे खाना ही भ्रष्टाचार नहीं है, आचरण भी इसमें शामिल है। अप्रेल में आंदोलन के बाद मई माह में अन्ना हजारे इस लोकायुक्त के घर पर ठहरे थे। इस तथ्य ने मुझे अधिक चिंता में डाला...
- अरविन्द केजरीवाल ने अपने ही विभाग से मिले नोटिस को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास किया, इसके लिए बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस की और लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास किया।
- अरुणा राय और दूसरे साथी जिन्होंने सूचना का अधिकार कानून को पास कराने के लिए पहले दौर में कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया, इस बार उन्हें उपेक्षित रखा गया। क्या वे राष्ट्रीय नेतृत्व के लायक नहीं हैं।
- केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के रेलवे स्टेशन पर सोते हुओं के चित्र नेट पर जारी किए गए। क्या इस तरह के मीडिया कैंपेन की जरूरत थी।
- राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि अन्ना और उनकी टीम की ओर से किए जा रहे इस आंदोलन की वे कड़े शब्दों में निंदा करते हैं, क्या टीम अन्ना के पास उनके लिए कोई जवाब नहीं था।
- बुखारी ने कहा कि मुस्लिम आंदोलन के साथ नहीं है, टीम अन्ना जो सरकार के हर कैल्कुलेटेड वार का जवाब देती रही, बुखारी के लिए एक भी शब्द नहीं मिला।
- आखिरी सवाल, भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ जुड़ी दो चीजों को सफाई से दरकिनार कर दिया गया है, एक भारत माता का चित्र और दूसरा बाबा रामदेव। बाबा की कई कमियां रही होंगी, लेकिन क्या उन्हें आंदोलन से अलग किया जा सकता है। एक साल तक बाबा पूरे देश में घूमकर काले धन की रट लगाता रहा, सोनिया गांधी को स्विट्जरलैण्ड जाकर धन का प्रबंधन करना पड़ा, लेकिन टीम अन्ना कुछ नहीं बोली। हो सकता है कि इससे विषयान्तर हो जाता, लेकिन क्या भर्त्सना भी नहीं की जा सकती।
- अन्ना ने कांग्रेस के ही तीन हथियार काम में लिए हैं। तिरंगा, गांधी टोपी और खुद गांधी। हर बार सरकार नहीं बदले जाने की बात कही है।
ये सभी तथ्य मिलकर एक बड़े नाटक के खेले जाने, वर्तमान सरकार के मुखिया को अयोग्य घोषित करने, कालेधन के मुद्दे को नेपथ्य में ले जाने, दूसरी पार्टियों (कांग्रेस के अलावा) को नुकसान पहुंचाने, राहुल गांधी का 2014 के चुनावों के लिए प्रोजेक्शन करने का आधार बनाते नजर आते हैं।
अब अगर अन्ना के आंदोलन के अगले चरण में राहुल गांधी निर्णायक भूमिका में बाहर आते हैं तो यह बात सिद्ध होगी, अगर कांग्रेस की सत्ता अल्पसंख्यक कार्ड और मनरेगा के साथ जातिगत वोटों को लेकर वापस भी आ जाती है तो देश खुद को ठगा हुआ महसूस करेगा। दुख की बात यह है कि लुंज पुंज विपक्ष भी विकल्प पेश नहीं कर पा रहा है।
हे भगवान...